स्मिता सिन्हा की कविताओं से रू-ब-रू होने पर मुझे लगा कि प्रेम इनकी कविता
में व्यापक मानवीय संदर्भ में नए शिल्प और मुहावरे में प्रयुक्त हुआ है जिसमें दैहिक वृति के आचरण के बजाए मनुष्यता को
बचाने की अदमित ललक है। प्रेम बुरे वक्त
का साथी है यहाँ। विद्रूपताओं और संकटों से उबरने की एक कोशिश जो इनके कवि का आत्मसंघर्ष है जिसे पाने के लिए वह कविता की वस्तु और रूप - दोनों स्तरों पर श्रम करती है ।
सिन्हा प्रेम को जिस भाषाई
तेवर और अंदाज में प्रस्तुत करती हैं कि उससे उनकी अर्थवत्ता और गंभीरता से उसकी भाषाई
तेवर और उनमें प्रयुक्त नए मुहावरे से ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह वाक-चातुर्य नहीं , न चौंकाने का उथला उपक्रम, बल्कि वस्तु खुद अपना शिल्प गढ़ लेती है।
उत्तराधुनिक होती सभ्यता में जब
हृदय-तत्व भी बाजार के हवाले हो रहा हो और परिदृश्य में प्रेम का वीभत्स-फूहड़ रूप कवयित्रीयों को स्त्री-मुक्ति की बाजारू साजिश के घनान्धकार के वशीभूत कर रही हो, उन्हें ‘भारत भूषण’ जैसे तारसप्तक काव्यों के नाम से पुरस्कार देकर कविता के प्रेम तत्व को साहित्य
में विचलित किया जा रहा हो, ये कविताएं हमारे बड़े काम की चीज
बन जाती हैं। देखिए , एक कविता - “मौन गीत”, जो स्त्री
के पुरुष सापेक्ष स्वतन्त्रता की जिस लय और अंतर्वस्तु में बुनी गई हैं, वह उनके कवि को जिस चलताऊ स्त्री-विमर्शवादी
कविताओं से इस मायने में अलग करती है कि कविता अपने और अंतर्विरोध को आक्रोश को बेहद कलात्मक स्वरूप
में अभिव्यक्त होकर हम तक पहुँचती है - कोस रहे थे उस मातृगर्भ को /जिसकी मिट्टी
से इन्हें गढ़ा गया / और एक-एक कर वे तोड़ने लगे / अपने उन अप्रतिम कृतियों को / कि
वे प्रश्नचिह्न बन चुकी हैं अब / इनके अस्तित्व पर /कि उनका ख़त्म होना ही / बचा
सकता है अब इनका वजूद “ । (कविता – मौन गीत)
स्मिता की कविताओं की इससे बड़ी विशेषता, इनकी कविता की सम्प्रेषण-क्षमता है। इसमें जो भाषाई खनक है, जो भावोद्वेलन की आरोह-अवरोह की गतिज रिद्म है, जो लरजती हुई शब्द-ध्वनियाँ हैं , वह हमारे मन को पूरी तरह प्रकंपित किए बिना
नहीं छोडती –
“पूरे आवेग
से टटोली थी मैंने
ज़िंदगी को उस घुप्प अँधेरे में भी
बदलना चाहा था परिदृश्य
पर संवेदनाएँ गुम होती चली गयीं
मैं चाहता था निकल भागूं
दूर कहीं अज्ञात में
उस चमकीली रौशनी के पीछे
बाँध डालूं अपने सारे मासूम सपनों को
उस एक सम्भावना की डोर से
बचा पाऊँ अपने बचपन को
बिखरने से पहले
पर नहीं
मैं कतरा-कतरा रिसता रहा
अपने जख़्मों में
और मेरी नज़रों के सामने
छूटती गयी ज़िंदगी। “ – स्मिता
सिन्हा कविता में बाबुषा कोहली या शुभमश्री की तरह कोई मदारी भाषा या शब्दाडंबर-जाल नहीं
रचती। इस नई कवयित्री के अपने भाषाई मुहावरे हैं जिसकी कहन की धार हमें आश्वस्त करती
है कि अपनी लंबी अशेष काव्य-यात्रा में वे श्लील, मार्मिक, कबीराना अभिव्यक्ति का जो शिल्प
हमारे सामने लाएँगी, वह उन्हें अपने समकालीनों से बेहतर और अलग पहचान देगी । - सुशील कुमार ।
स्मिता सिन्हा की कुछ कविताएँ -
- मैं लिखूंगी प्रेम
मैं लिखूंगी प्रेम
उस दिन
जिस दिन
सूखने लगेंगे
पेड़ों के हरे पत्ते
ख़त्म होने लगेंगे जंगल
और
दरकने लगेंगे पहाड़
मैं लिखूंगी प्रेम
उस दिन
जिस दिन
नदी करेगी इंकार
समुन्दर में मिलने से
सारस भूलने लगेंगे
पंखों का फड़फड़ाना
और
बंजर होने लगेगी धरती
मैं लिखूंगी प्रेम
उस दिन
जिस दिन
असहमतियों की ज़मीन पर
उगेंगे नागफ़नी के पौधे
मरने लगेंगी सम्भावनाएं
जीवन की
और
घुटने लगेगी हमारी हंसी
किसी कोहरे की धुंध में
हाँ, मैं लिखूंगी
प्रेम
उस दिन भी
जिस दिन
तुम नकारोगे मुझे
मेरे प्रेम को
और उस दिन
छोड़ जाऊँगी तुम्हें
अपने प्रेम के साथ
ताकि तुम समझ सको
प्रेम में होने का अर्थ
- मौन गीत
उस विहंगम काली रात में
जब सन्नाटे गा रहे थे मौन गीत
वे शिल्पी सिर झुकाए बैठे थे
कर रहे थे आंकलन
खोये-पाये का
कुछ चिंताग्रस्त से
ओह ! ये कैसे हो गया ?
सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना
इतनी कलुषित, इतनी मलिन
वे कर रहे थे गणना
उस नक्षत्रमंडल का
जिसके दूषित काल में
इनकी परिकल्पना की गयी
कोस रहे थे उस मातृगर्भ को
जिसकी मिट्टी से इन्हें गढ़ा गया
और एक-एक कर वे तोड़ने लगे
अपने उन अप्रतिम कृतियों को
कि वे प्रश्नचिह्न बन चुकी हैं अब
इनके अस्तित्व पर
कि उनका ख़त्म होना ही
बचा सकता है अब इनका वजूद
वे बन चुकी है विद्रोही
बदजुबान हो चुकी हैं वो
आ खड़ी होती हैं अक्सर
अपने धारदार तर्कों के साथ
और दूर कोहरे में लिपटी
वे अनबुझ आकृतियाँ
जिन्हें कभी रचा गया था
पुरुषों के लिये
खड़ी थीं आज निर्लिप्त ,मौन
देख रही थीं कहीं दूर
ज़िंदगी के धुंध के परे
उस चमकीले रास्ते को
जो कर रही थी आलिंगन
क्षितिज पर उग रहे
एक नये सूरज को........
- तटस्थता
उस दिन
उस एक दिन
जब एक सभ्यता का विनाश जारी था
घिरा हुआ था मैं भी वहीं कहीँ
उन भग्नावशेषों के मलबों में
बेबस ,बदहवास शक्ल
और चेहरे पर बिखरे खून के साथ
चुप होने से पहले
मैंने आवाज़ लगाई थी तुम्हें
चिल्लाया था अपने पूरे दम से
पर तुम निर्लिप्त बने रहे
पूरे आवेग से टटोली थी मैंने
ज़िंदगी को उस घुप्प अँधेरे में भी
बदलना चाहा था परिदृश्य
पर संवेदनाएँ गुम होती चली गयीं
मैं चाहता था निकल भागूं
दूर कहीं अज्ञात में
उस चमकीली रौशनी के पीछे
बाँध डालूं अपने सारे मासूम सपनों को
उस एक सम्भावना की डोर से
बचा पाऊँ अपने बचपन को
बिखरने से पहले
पर नहीं
मैं कतरा-कतरा रिसता रहा
अपने जख़्मों में
और मेरी नज़रों के सामने
छूटती गयी ज़िंदगी
पता है तुम्हें
इतनी तटस्थता यूँ ही नहीं आती
कि इतना आसान भी नहीं होता
जिंदा आँखों को कब्र बनते देखना
बावजूद इसके
यकीन मानो
मैं बचा ले जाऊँगा
विश्व इतिहास कि कुछ अंतिम धरोहरें
कि मैंने उठा रखा है
अपने कंधों पर उम्मीदों का ज़खिरा
(उफ़्फ़ !! ओमरान दकनिश, तुम्हारे मौन में भी कितना शोर है ।)
- धर्मयुद्ध
उस अरण्य के अभ्यंतर में
ठीक उस गुप्त-गढ़ी प्रांगण के बीचोंबीच
जमघट सा लगा है
क्या है
कुछ तो हो रहा है वहाँ
विद्रोह फ़साद बगावत
या फ़िर किसी युगचेतना का समायोजन
ध्रुवीय समीकरणों से कुछ खेमे
ग्रंथों पर आरूढ़ कुछ धर्माध्यक्ष
हो रही थी चर्चा
धर्म-संकट-मीमांसा पर
जैसे किसी पुरातात्विक उत्खनन से निकली हो
युग-प्रवर्तण की गर्भस्थ-चेतना
सन्दर्भ अपने चरम पर था
और यह क्या
सहसा वे हो उठे क्रोधोन्मत
क्षुब्ध
क्षत -विक्षत सा हुआ सारा समूह
उस रेखीत से आर -पार
यथाक्रम तटस्थ योद्धा की भाँति
धूमाभ सा हो उठा आकाश
रक्तरंजित सी धरा
योधण से हर मार्ग अवरुद्ध
सुनो
वह ध्वन्यात्मक उद्घोष युद्ध की
देखो शुरू हो चुका अब धर्मयुद्ध
अपनी कल्पनाओं
में भी वो
तटस्थ नहीं रह पाती
विचरती है पृथ्वी के
एक छोर से दूसरे छोर तक
खोजती है
अपनी कल्पनाओं के बीज
जिसे रोपा था कभी उसने
ऊँचे दरख्त के नीचे की
उस नम मिट्टी में
कि उसकी कल्पनाओं में
सिर्फ़ बसंत ही नहीं
पतझड़ों का भी है मौसम
रंग-बिरंगी तितलियां ही नहीं
तितलियों के टूटे नाजुक पंख भी हैं
सिर्फ़ खट्टी मीठी झरबेरीयों का स्वाद ही नहीं
कांटों में उलझ कर जख्मी हुए हाथ भी हैं
उसकी कल्पनाओं में अब भी आती है
वही छोटी सी लड़की
कस कर गुथी हुई दो चोटियों
और बड़े बड़े छापे वाले फ्रॉक में
बुहारती है आँगन को दूर तक
और बनाती है बड़ी लगन से
एक मिट्टी का घरौंदा
कोई ईंट गारा नहीं
उसे तो बस चाहिये
इंद्रधनुष के थोड़े चटकीले रंग
वह सजाती है अपने सपनों को
बड़े करीने से
और बुनती है
सुंदर से परिवार का ताना बाना
फ़िर वही बादल
फ़िर वही बारिश
और निस्तब्ध सी खड़ी वो
बस देखती रह जाती है
बेतहाशा बहती मिट्टी को
सारे धुलते रंगों को
अपने टूटते घरौंदे को
उसकी कल्पनाओं के
विस्मृत अवशेषों में
अब भी आती हैं नानी
और उनकी कहानियाँ
पर कोई राजकुमार या
परियों की रानी
नहीं
कि अब वह समझ चुकी है
ज़िंदगी का सच
उसकी कल्पनाओं में अब शेष है
एक अकेला डूबता सूरज
एक अकेला सिकुड़ता आकाश
और वह एक अकेली चिरैया
जो सारे दिन नापती
फ़िर समेटती
अपने सपनों का विस्तार
तुम्हें पता है
अपनी कल्पनाओं में
वह अब भी ढूंढ़ती है तुम्हें
पीछा करती है
तुम्हारी आवाज़ का
गहरे धुंध के परे
क्षितिज के उस पार तक...।•
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
शिक्षा :
एम ए (एकनॉमिक्स ),पटना
पत्रकारिता (भारतीय
जनसंचार संस्थान ),
बी एड (कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय )
विभिन्न मीडिया हाउस के साथ 15 से ज्यादा वर्षों का कार्यानुभव
,
एम बी ए फेकल्टी के
तौर पर विश्वविद्यालय स्तर पर कार्यानुभव ,
प्रकाशित काव्य संग्रह : हिन्दी युग्म द्वारा प्रकाशित
"सौ क़दम "
मेल:smita _anup @yahoo.com
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