शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

युवा कवि असलम की कवितायेँ - उमाशंकर सिंह परमार

 असलम हसन युवा कवि हैं । अभी कुछ दिन पहले साथी हरेप्रकाश उपाध्याय ने असलम की कुछ कविताएं मुझे पढ़ने के लिए प्रेषित की थी। हरेप्रकाश अक्सर नये लोगों और रचनाकारों से मुझे परिचित कराते रहते हैं। असलम की कविताएं पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं कविता नहीं पढ़ रहा बल्कि अपने द्वारा की जा रही प्रतिक्रियाएं पढ़ रहा।मेरा अन्दाजा है , जो भी इन कविताओं को पढ़ेगा ,  वह अपनी प्रतिक्रिया ही समझेगा। कारण है व्यवस्था के खिलाफ की गयी प्रतिक्रिया कभी भी दूरावलोकन से नहीं अनुभूत की जा सकती है। पाठक को प्रतिक्रिया तभी प्रभावित कर सकती है, जब व्यक्तित्व की स्वाभाविक चिन्तन दशाओं के साथ दैनिक जीवन की ऊभ-चूभ से उबलता आवेगात्मक लावा कविता की रचना-प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है । हम इस आवेग को असलम की कविताओं में सहज ढंग से चिन्हित कर सकते हैं । असलम का आवेग महज प्रतिक्रिया बनकर नहीं रह जाता है । वह प्रतिरोध की अक्खड़ भंगिमा के साथ मनुष्यता के मौलिक सवालों से मुठभेड करता है । ये सवाल वैविध्यपूर्ण हैं । एक तो कवि अपनी रचनात्मकता से मुठभेड़ कर रहा होता है । इसका उदाहरण "मेरी कविताएं शायद कागजी घोडे हैं " हैं - यह कहकर वह कविता के कलावादी-रूपवादी शौकिया विधान की निर्रथकता का उदघोष करते हैं । यही रचनात्मक मुठभेड़ है , जहां कविता का विजन तय कर लिया जाता है । दूसरी ओर,  वह मैं मजदूर , रिक्शावाला , कंकाल जैसी कविताओं के द्वारा हस्तक्षेप की जरूरी बेचैनी से भी मुठभेड़ करता है। मैने देखा कि असलम कविता लिखते समय अपनी दृष्टि विडम्बनापूर्ण अन्तर्विरोधों में केन्द्रित रखते हैं  , इसलिए कविता उन बातों को जिन्हें सामान्य कवि नजर अन्दाज़ कर देता है , वह उसके जनतन्त्रीकरण के मसलों से जोड़कर देखते हैं । ऐसे मसलों को हस्तक्षेप की भंगिमा में रूपान्तरित करते हुए प्रच्छन्न फासीवाद जाहिल उपभोक्तावाद व राजनैतिक मूल्यहीनता की आक्रामक ढंग से बात करते हैं । यह ढंग युगबोध और प्रतिरोध का आवेशभरा दायित्वबोध से लबरेज गम्भीर आग्रह है । यहां कवि तमाम किस्म की बनावटी शब्दावलियों से अपनी पक्षधरता परिभाषित करने की कोशिश नहीं  करता है , बल्कि परिभाषित करने की बजाय वह अपनी वर्गीय अवस्थिति व भागीदारी को अभिव्यंजित करने में अधिक रूचि रखता है । आत्म-उपस्थिति की इस भंगिमा के कारण कविता में संवेदना की ठोस संकल्पभरी गतिशीलता के दर्शन होते हैं, जबकि अधिकांश कवियों की रचनाएं इस महत्वपूर्ण बिन्दु में बैनरबाजी और पोस्टरिंग करने लगती हैं। ऐसी संकल्पधर्मा चेतना प्रतिरोधी सपाटपन भंगिमा कम कविताओं मे दिखती हैं -"घुन खाए पाँवों से नाप लूँगा / पथरीली सडक ./यह तमाम विकल्पों विचलनों , पक्षहीनताओं के बीच ऐसी चेतना परिवर्तनकारी प्रतिक्रियाओं का हिस्सा है । इसे कवि के विजन में निहित सरोकारों से जोड़कर देखना चाहिए । कवि लगभग हर कविता में उपस्थित है ।वह सीधे उत्तम पुरुष में बात करता है -"मेरे आने का अहसास ही उसे नीद से भर देगा" जैसे कविता खंड नौजवान कवि के अनुभूत शक और गुस्से को जायज कर देता है । कविता में कवि की उपस्थिति ही कवि की पक्षधरता का निर्णय करती है । जब कवि दर्शक और विवेचक की तरह कविता में  उपस्थित होता है तो कवि का पक्ष तो समझ में आता है । मगर कविता में मद्धिम आवेग समाहित हो जाते हैं व भाषा का स्वरूप अटपटा लगने लगने लगता है । ऐसी कविताओं में कवि पढ़ा-लिखा, मगर मध्यस्थ की भूमिका में होता है । साथ ही पाठक दर्शक की भूमिका में होता है । दोनों का साधारणीकरण नही हो पाता और कविता अप्रभावी सी लगने लगती है। यह खुशी की बात है कि असलम इस पद्धति से बचे हैं । इसलिए ये कविताएं कवि के आत्मगत अनुभवों की बेहतरीन पहचान कराती हैं और आधुनिक विकास प्रक्रिया व निर्वासित होते मनुष्य के पक्ष में आत्मसंघर्ष का एलान करती हैं। - उमाशंकर सिंह परमार ।

असलम हसन की कुछ कविताएँ 

1. मेरी कविताएँ
मेरी कविताएँ शायद का़गज़ी घोड़े हैं
या महज़ शब्दों की कलाबाज़ियाँ
कल्पना की महीन कोशिकाओं में
महसूस करता हूँ टीस
खोखले बयानबाज़ी से रचता हूँ संसार
कपाल की कठोर हड्डियों में कुशलता से
टाँकता हूँ संवेदनाओं के पैबंद
और इस तरह पृष्ठ के मध्य लिखता हूँ
हाशिये का दर्द...

2. मैं मजदूर हूँ
मैं एक मजदूर हूँ
मेरी भुजाओं में फड़कती है धरती
ये तोड़ सकते हैं पहाड़ों को
और मोड़ सकते हैं नदियों की धाराओं को....
मेरे पाँव बड़े बलशाली...
थकते नहीं रुकते नहीं
उठाता हूँ कंधों पर संसार
मेरी मुट्ठी में क्रांति है
मेरे होठों पर गीत हैं और आँखों में पानी
मेरा पेट...मेरा पेट...
नहीं मैं झूठ नहीं बोल सकता।

3. रिक्शावाला
तीन पहियों से बिठाकर साम्य
गति से
भागता है आगे
फिर भी पीछे बैठे हुए आदमी से
बहुत पीछे
छूट जाता है रिक्शावाला

4. ऊपर उठता है सि़र्फ धुआँ
पोटली में बाँध कर चाँद
जब कोई निकलता है निगलने सूरज
तब गर्म पसीने की उम्मीद में सांवली मिट्टी
कुछ और नम हो जाती है...
और दिन भर पिघलती हुई ख़्वाहिशें
सिमट कर कुछ और कम हो जाती हैं
शाम ढले घास और जलावन लेकर
घर लौटती उस गोरी पर चस्पाँ होता है चुपचाप
एक और स्याह टुकड़ा
रात गये तपता है गोल-गोल चाँद
गर्म तवा पर
सि़र्फ खोखला धुआँ
ऊपर उठता है आसमान

5. हँसता है कंकाल
वे जो पहाड़ों की सैर नहीं करते
अपने कंधों पे ढोते हैं पहाड़...
वे जिनके बच्चे कभी नहीं जोड़ पाएंगे
लाखों-करोड़ों का हिसाब
रटते हैं पहाड़ा
वे जो सींचते हैं धरती-गगन अपने लहू से
रोज मरते हैं पसीने की तेजाबी बू से
वे जो मौत से पहले ही हो जाते हैं
कंकाल
कभी रोते नहीं
शायद हँसी सहम कर
ठहर जाती है
हर कंकाल की बत्तीसी में...

6. हम बेचारे
ऊपर अम्बर
चाँद सितारे
नीचे धरती
हम बेचारे
धूप-छाँव और
दुशवारी लेकिन
जीना जारी
जान से प्यारा
अपना जीवन
फिर भी
ज़िंदगी भारी
उनके हिस्से
हवा-हवाई
लाल से चेहरे
सा़फ-स़फाई
धूल भरे हैं
गाँव ये सारे
कीचड़ सने
पाँव हमारे
हम तो बस
मेहनत के
सहारे
शह के बल
पर वो जीते
घात-मात से
हम हारे
नील गगन
चाँद सितारे
सख्त ज़मीं
और हम बेचारे...

7. अपना गेहूँ
उधार का आटा आँचल में लेकर
घर लौटती है वह शाम को अक्सर
ठंडा चूल्हा पल भर जल कर
सो जाता फिर आँखें बंद कर
सूनी आँखों में सपना बुन कर
वह भी सोती है पहर भर
रात भर उन आँखों का सपना
सींचता रहता है गेहूँ अपना

8. शोषित चेतना
घुन खाए पाँवों से नाप लूँगा
पथरीली सड़क
जा पहुँचूँगा उस पार
लौह द्वार तक
शिथिल पेशियों से जकड़ लूँगा
तुम्हारी गर्दन
पोपले मुँह में चबा लूँगा
तुम्हारी अकड़ी हुई हड्डियाँ
ख़ाली हाथ में फिर भर लाऊँगा
अपने बच्चों की किलकारियाँ...

9. जनता क्यों हँसती है
शतरंज की बिसात पर
गोटियों की मानिंद बिछी हुई जनता
आ़खिर क्यों हँसती है किसी मस़खरे की बात पर
धर्म और जात पर
बुनियादी सवालात पर
बँटी हुई जनता
आ़खिर क्यों हँसती है
बिगड़े हुए हालात पर
जब नाज़ुक जज़्बात से खेलता है
खेल कोई
तज़ुर्बों में पकी हुई जनता
आ़खिर क्यों हँसती है
ज़हरबुझी बात पर
भूख और प्यास से कुलबुलाती आँत पर
रेंगती हुई जनता
आ़खिर क्यों हँसती है
किसी मस़खरे की बात पर

10. नये साल में
अब कुछ भी नया नहीं लगता
नयी उम्मीदें भी नहीं
नया हौसला नहीं जगातीं
जैसे-जैसे पुराना हो रहा हूँ लगता है
नयी-नयी चीज़ों से कभी मेरा वास्ता रहा ही नहीं
बस पुरानी बातें और गुज़रे हुए बदहाल साल
और उन्हीं दिनों के चन्द खुशनुमा पल के साथ
अब तो बीत रही है ज़िन्द़गी
पता तक नहीं चलता कब और कैसे
पुराने पड़ने लगते हैं हमारे रिश्ते-नाते...
जोश-़खरोश से लबरेज़ वे लम्हे
जिन्हें व़क्त ने पीछे छोड़ दिया है
शायद बता सकें खुशियाँ मनाते
लोगों के राज़

11. पिता
बच्चे बड़े हो गये
और बौना हो गया है पिता
घर का एक बेकार कोना
बिछौना हो गया है पिता
अपने पाँव पर खड़े हो गये
खेलते बच्चे
और खिलौना हो गया है पिता...

12. देखो दुनिया भाग रही है
रात जो अब तक जाग रही है
मेरे आने का एहसास ही
उसे नींद से भर देगा...
तमाम करवटों की सिलवटों में
थकन कहीं खो जाएगी
और
मेरे पहलू में सोई हुई रात
सुबह होने के
अंदेशे से फिर जग जाएगी
मुझे भी जगाएगी दिखाएगी दुनिया
देखो दुनिया कैसे जाग रही है
देखो दुनिया कैसे भाग रही है

13. ‘बूढ़े बच्चों’ के नन्हें हाथ
‘बूढ़े बच्चों’ के नन्हें हाथ
अपनी बदरंग दुनिया में बुनते हैं
ताना-बाना
रंग-बिरंगे धागों का
ज़िंदगी के मासूम बेलबूटों से वे सजाते हैं
कालीन का बदन
और आँखों की अपनी रोशनी से भर देते हैं
उसका दामन
और ज़मीन पर कभी न पड़ने वाले
नाज़ुक पाँवों की खातिर
संगमरमरी फर्श पर बिछाते हैं
म़खमली आराम
‘बूढ़े बच्चों’ के नन्हें हाथ....
                       (कालीन उद्योग में कार्य करने वाले समय से पहले बूढ़े हो चुके बच्चों के नाम)

14. ज़िन्दा दफ़न कर दी गई बेटियों के नाम
(पवित्र कुरआन में वर्णित क़यामत के दिन के मंज़र पर आधारित कविता)
जब खींच ली जाएगी आसमान की खाल
और सूरज सवा नेज़े पर आ जाएगा
जब ऊँटनियाँ बिलबिलाएंगी और
पहाड़ रुई बन जाएगा
जब माँ इन्कार कर देंगी अपने बेटों को
पहचानने से
तब उस क़यामत के दिन अल्लाह माँगेगा हिसाब
जिन्दा द़फन कर दी गई
बेटियों से पूछा जाएगा
बताओ तुम्हें किस ज़ुर्म की
सज़ा दी गई थी
तब उस इंसा़फ के दिन
मेरी बेटियों तुम तोड़ देना अपने-अपने
सब्र का बाँध
शायद खुदा के सामने
हश्र का मैदान* पानी-पानी हो जाए
(*हश्र का मैदान, वो मैदान जहाँ कयामत के दिन अल्लाह इंसा़फ करेगा)

15. युद्ध जीता कौन ?
बंजर खेतों में खोजना सि़र्फ बारूद की फसलें
गर्द-आलूद ़फौजी जूतों में देखना जरखेज़ मिट्टी के
निशान...
पूछना उस वीरान शहर से उसे आबाद होने में
कितना व़क्त लगा था
और कितना व़क्त लगा था उसे वीरान होने में...
पूछना रेत से तेल निचोड़ लाने वाले हुनरमन्द
सिपहसालारों से
युद्ध आख़िर जीता कौन
खौ़फनाक ज़िन्दा चीखें या मुर्दों का मौन...

16. उस रात के बाद हर रात
उस रात के बाद
हर रात अक्सर नींद उचट जाती है
लगता है बाहर हज़ारों कुत्ते भौंक रहे हैं
बस्ती में धुँआ उठ रहा है और
भीतर अस्थियाँ पिघल रही हैं
उस रात के बाद
अक्सर नींद उचट जाती है
दौड़ती है सिहरन नस-नस में
चीखना चाहता हूँ
लेकिन आवाज़ फँस जाती है हलक में
मानो किसी ने गर्दन में टायर डाल दिया हो
उस रात के बाद हर रात अक्सर
जग जाती है चौंक कर
पास सोई उम्मीद भरी पत्नी
झंकझोरती कहती, सुनते हो
आजकल मुन्ना पाँव नहीं चलाता...

17. फेसबुक
काश हर चेहरा किताब होता
कितनी आसानी से पढ़ लेता
हर दिल की इबारत और पहचान लेता
हर सूरत की ह़की़कत...
काश हर चेहरा किताब होता तो लफ्ज़ों की
धूप छाँव में ढूँढ लाता ज़िंदगी,
भांप लेता खिलखिलाते लोगों का दर्द
काश हर चेहरा किताब होता...
चुपके से देख लेता ख़ामोश अदावत
नर्म व नाज़ुक लहज़ों की बारी़क साज़िशें और
मुहब्बत भरी निग़ाहों से झाँकती हिक़ारत
शायद चेहरा किताब नहीं नक़ाब होता है
जिसमें छुपे होते हैं कई-कई चेहरे...

18. मुश्किल है आसाँ होना
कितना मुश्किल है आसाँ होना
फूलों की तरह खिलखिलाना
चिड़ियों की तरह चहचहाना
कितना मुश्किल है
सुनना फुर्सत से कभी दिल की सरगोशियाँ
और देखना पल भर रंग-बिरंगी तितलियों को
कितना मुश्किल है फ़िक्र से निकल आना
किसी मासूम बच्चे की मानिंद मचल जाना
कितना स़ख्त है नर्म होना
मोम होना
और पिघल जाना
कितना आसाँ है दिल का जाना
दुनिया में ढल जाना
और आदमी का बदल जाना...

19. अँधेरे में मुक्ति-बोध
कौन है मुक्त यहाँ
शायद कोई नहीं....
हाँ मैं भी नहीं
मुक्ति तो ज़िंदगी ढोते-ढोते मर गई
या रिश्ते समेटने में बिखर गई
मैं क्या
ब्रह्माण्ड में नाचती पृथ्वी भी तो मुक्त नहीं
आकर्षण बल के अधीन परिक्रमा भी स्वतंत्र नहीं
हृदय भी धमनी-शिरा युक्त है
स्पंदन भी कहाँ मुक्त है
हाँ
मानता हूँ मुक्ति सच नहीं
ज़िंदगी तो बंधनों के जाल में फँसी मछली जैसी
फिर जीवन संघर्ष से मुक्ति कैसी
स्वच्छ आकाश में
या धरती पर प्रकाश में
मुक्ति कहाँ दिखती है
लेकिन मुक्ति-बोध क्यों होता है हर पल अँधेरे में...।
युवा कवि
असलम हसन 
ग्राम : कमलदाहा, जिला-अररिया (बिहार)
शिक्षा : स्नातक, इतिहास (प्रतिष्ठा), अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
स्नातकोत्तर (ग्रामीण अध्ययन), पटना विश्वविद्यालय
प्रकाशन : पत्र-पत्रिकाओं यथा हंस, पाखी, बया, कथादेश, आजकल, कादम्बिनी, समकालीन सरोकार इत्यादि
में रचनाएँ प्रकाशित। नवसाक्षरों के लिए लेखन। इतिहास में विशेष रुचि।
कुछ कविताएँ अनूदित एवं मंचित
पुरस्कार : साहित्यिक संस्था "समन्वय"(पटना) द्वारा युवा कवि पुरस्कार

सम्पर्क-
मोबाइल: 08130102660

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई इन्होने हाशिये के दर्द को पृष्ठ के मध्य रखते हुए रचनाएँ की है. सुन्दर रचनाओं के लिए बधाई एवं इन्हें पढवाने हेतु हरेप्रकाश जी व शब्द सक्रीय का विशेष धन्यवाद !

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  2. असलम जी की कवितायें मैंने उन्हीं से सुनीं। बड़ी दमदार कवितायें लिखते हैं वे। उनकी कुछ कविताओं का संकलन भी मैं ने पढ़ा। ऐसा असरदार कवि विशाहपट्नम में है, यह हमारे लिए गर्व की बात है। इस हसमुख मिलनसार संवेदनशील कवि को शुभाभिनंदन।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-12-2016) को "जीने का नजरिया" (चर्चा अंक-2559) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. वाह. बहुत खूब. मुझे आपकी कविता 'मुश्किल है आसां होना' बेहद पसंद है, इस कविता का उपयोग मैंने अपनी आत्मकथा में किया है ।

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  5. असलम जी काे सलाम !!
    भाई , अच्छी कविताएँ हैं ... शुभकामनाएँ !!
    - कमल जीत चाैधरी .

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  6. असलम हसन जी सुन्दर कविताएँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद

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  7. असलम की और और कविताएं पढ़ने की चाह

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  8. अति सुंदर असलम जी बधाई व शुभकामनाएं 😊

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