बुधवार, 24 दिसंबर 2008

यह चुप्पियों का शहर है


साभार - गूगल 
निजाम बदल गये

तंजीमें बदल गयीं

पर इस शहर की तसवीर नहीं बदली

यह,

हादसों का एक शहर है

यहां धूल है, धुआँ है

राख की ढीहें हैं

और ढेर-सी चुप्पियाँ हैं।


इन चुप्पियों के बीच

इक्की-दुक्की जो आहटें हैं

अधजले शवों पर श्मशान में

कौवों, चीलों की

छीना-झपटी जैसे हैं

जो टूटता है जब-तब

उँघती सरकार की

नींद उचाटती नारों की फेहरिस्त से

गलियों में सड़कों पर इमारतों में

जिनकी बोलियाँ पहले ही लग चुकी होती है।


'मंगलदायक-भाग्यविधाताओं'

की छतरियों के नीचे

मर-मर कर जीने

और अभिशप्त रहने की तमीज़

स्वशासन के इतने सालों में

लोगों ने शायद सीख लिया है,

तभी तो शहर में इतनी वहशत के बाद भी

न इनकी आँखें खुलती हैं

न जुबान हिलती हैं

पेट के संगत पर सिर्फ़

इनके हाथ और

इनकी जांघें चलती हैं।


इनकी 'बोलती बंद'के पीछे

तरह-तरह की भूख की तफसीलें हैं

जो इंसानियत की सभी हदें फांदकर

इस शहर के जनतंत्र में

इन्हें पालतू र्ररा सी

बनाये रखती हैं

जहाँ अपनी आँखों के सामने

खून होता तो देखते हैं ये

चीखें भी सुनते हैं

मगर बोल नहीं पाते।

न कटघरे में

खड़े होकर अपने हलफ़नामे दे सकते।

इन पर बिफ़रना,

गुस्से से लाल होना

हमारे कायर चलन हैं,

क्योंकि हर लफ्ज़, हर सिफ़र पर

यहाँ कोई गुप्त पाबंदी है,

इसलिए खू़न को खून,

कह पाना यहाँ लगभग बेमानी है,

जैसे खू़न नहीं बहता पानी है।


डर के चूहों ने

हमारे मगज़ में घुसकर

इतनी कारसाजी से

होश की जड़ें कुतर दिये हैं कि

ड्राइंगरूम की सीमा लांघ

कभी हम भी सड़क पर

उतरने की ज़हमत

नहीं उठा पाते।


इतने जात, धर्म, झंडे

और सफेद होते सच हैं यहाँ

कि जन का स्वर

इस तंत्र में दब कर रह जाता है।

लपक लेता है कोई

अन्दर की सुगबुगाहटें

चंद शातिर चालों को खेलकर

अनगढ़े गढ़ देने का आश्वासन देकर

सुशासन के कई-कई वादों में।


हताश जनमन ठगा सा पाता है

शहर के हर मोड़ पर अपने को।

और हर बार यही होता है

कि क्रांतिबीज

अंकुरन की दशा में ही कुचक्रों का पाला

झेलकर मर जाता है,

शहर की नाक़ पर चढ़ा तापमान भी

गिर जाता है।


समझ नहीं पाते

इस शहर के बासिंदे

इतनी-सी सच

और ईहलोक-परलोक सुधारने

का सपना लिये

अपने सपनों की दुनिया में वापस

लौट आते हैं

जहां हाड़तोड़ कमाई को अपनी

ठेकेदारों की झोलियों में भरते रहते हैं

और खूद ‘फकीरचंद’ रहते हैं !



ज़ाहिर है,

जायज़ सवालों को लेकर जब तक

लोगों की चुप्पियाँ नहीं टूटेंगी,

रीढ़ अपनी सीधी कर लोग

सख्त इरादों से तनी

अपनी मुट्ठियाँ

कुव्यवस्था के खिलाफ़

जनतंत्र के आकाश में

जब तक नहीं लहरायेंगे

मतपेटियों पर काबिज़ जिन्न

तब तक कानून की आड़ में

तंत्र के अक़्स बनकर

इस शहर पर क़हर

बरपाते रहेंगे

और लोग अपनी आँखें

मलते रहेंगे

लानतों के इस गर्द-गुबार शहर में!
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15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर ब्‍लाग है आपका...बधाई....बहुत अच्‍छी अच्‍छी कविताएं है इसमें.... सभी कविताओं का रसास्‍वादन किया ....उम्‍मीद है आगे भी आपकी ऐसी ही स्‍तरीय कविताएं पढने को मिलती रहेंगी।

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  2. बहुत बधाई. शीर्षक का फांट सही कर ले. टाइम की जगह कोरियर लगा दे .

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  3. मैं तो इस काबिल भी नहीं कि इस रचना की तारीफ कर स‌कूं, क्योंकि मुझे जिस रचना ने अंदर स‌े झकझोर कर रख दिया, उसके रचियता की तारीफ करने की काबिलियत मुझमें है ही नहीं, फिर भी आदमी हूं, इसलिए कहे देता हूं कि इस रचना का जवाब नहीं।

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  4. Aapka mail mila.
    Nichaya hi pahli nazar meN aapki kavitayeN aisi to nahiN hi lagti ki sirf kavita likhne ki rasm nibhaane ke liye likhi gayi hoN.
    Blog ka kala-paksh bhi prashansniye hai.

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  5. निजाम बदल गये
    तंजीमें बदल गयीं
    पर इस शहर की तसवीर नहीं बदली
    ..Nice poem.

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  6. बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है आपने शोषण के बदले स्वरूपो को।
    बधाई।

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