साभार - गूगल |
जलसों और जुलूसों में
अपने चेहरे खोकर
लोग हताश होकर
अब अपने घर लौट आते हैं
और अपनी ऊब और आत्महीनता का
नया चेहरा पहनकर
चुप्पियों की गहरी नींद में
सोते हैं।
यह साफ़ है कि
जो उनको उकसाता है
वह उनकी भाषा तोड़ता है
क्योंकि तंत्र के तमाशागर के हाथों
नेतृत्व अब
सपेरों के बीन की तरह है
जिनकी धूनों के व्याकरण
आदमी को पालतु बनाते हैं,
आदमीपन के दाँत उखाड़ते हैं
जिसमें उसका फुफकार
केवल एक तमाशा है,
खाने-कमाने का ज़रिया है
जहाँ आन्दोलन जनता के लिये
एक कारागार है,
सँपोलियों का पिटारा है
जिसके घिराव में
उसकी आग
अदब से क़ैद रहती है और
सुलगाने से ही सुलगती है।
हर बार होता यही है कि
उसका उबाल
भेंड़ों की खाल हो जाता है
जिसके उपयोग के बाद
जनता बीतराग हो जाती है
और उसकी थकान
उसकी ही असफलताओं का प्रत्यय बनकर
हर बार उसके हलक़ में फँस जाती है।
इतिहास को मत देखो, वह तो महज़
जन-मन के कब्रिस्तान में गड़ी तख्तियाँ हैं
जिसे सभ्यता की दीमकें कब की चट कर चुकी हैं !
क्या यह सच नहीं कि
हमारे अगुवा अब नये ढंग और नई भाषा में
हमारे स्नायु-तंतुओं पर बल डालते हैं,
हममें अनुकूलन का बीज बोते हैं
और उछलकर हमें लपक लेते हैं
जहाँ अपने हाथों में हम
उनके झंडे पाते हैं और
अपनी जुबान पर उनके रटाये नारों की फेहरिश्त ?
man karta hai fursat main baithkar in sunder sunder kavitaaon ka rasaswadan karoon
ReplyDeleteaapka shukriya ki aapne kavy ka aik guldasta pesh kiya
सुशील कुमार प्रतिभाशाली कवि हैं। उनकी कविताओं में ताज़गी है। उन्होंने अपनी काव्याभिव्यक्ति के लिए नये-नये विषयों को चुना है। लगता है, सुशील कुमार की काव्य-सृष्टि से हिन्दी कविता नया मोड़ लेगी। उनकी रचनाओं में गज़ब की रवानी है एवं दृष्टि साफ़ है। सामाजिक चेतना के इस काव्य-शिल्पी का मैं अभिनन्दन करता हूँ।
ReplyDelete— महेंद्रभटनागर