साभार : गूगल |
पतझड़ का संगीत
बज रहा है
पहाड़ी लड़कियाँ
कोई विरह-गीत गुनगुना रही हैं
गीत में पहाड़ का दुःख
समा रहा है
लाज से सिकुड़ी नदी
सिसक रही है
पहाड़ी जंगल तोड़ रहे हैं
पहाड़ का मौन
अपने आर्त्तनाद से
पहाड़ियों की आँखें
और पसर गयी हैं
मुँह और फट गये हैं
पीठ उनके और
उकडूँ हो गये हैं
कंधे और झुक गये हैं
गाड़ी भर-भर पहाड़ी लड़कियाँ
परदेस जा रही हैं
पहाड़ी लड़के भी संग जा रहे हैं
उनके गीतों का कोरस
घाटियों में गूँज रहा है।
कूच कर रही है रातभर
जंगलों से लदी गाड़ियाँ
पहाड़ से शहर की ओर
हाँफ रहे हैं दिनभर
खड्ढ- मड्ड पहाड़ी रस्ते
पत्थर और बालू ढोते
बड़े-बड़े डम्फरों के पहियों तले
“क्रशर“ मशीनों और मालवाहक यानों की
कर्कश घड़घड़ाहटों में
गीतों के स्वर टूटकर
बिखर रहे हैं पहाड़ पर
और जम रहे हैं धीरे-धीरे
धूल के नये, भूरे पहाड़
वीरान हो रहे पहाड़ पर।
पहाड़ के हिस्से में इस तरह
नित आ रहे हैं नये
दुःख के पहाड़
***********
पहाड़ का हाड़
ReplyDeleteदिखा दिया आपने
और
क्यों बन रहा है कबाड़
बतला दिया आपने।
पहाड़ भी होता है दुखी
पसरती हैं जिसे देख
पहाडि़यों की आंखें
भयावह सच्चाईयां
भोग भोग कर।
इस भोग से होता है
पैदा रोग
आवाजों का
धूल का
और वीरानेपन का।
कविता में इस
आया है सब खुल
नहीं है ढोंग
कविता यह सच्ची है
सच्चाई नहीं है अच्छी
पर कविता बहुत अच्छी है।
प्रकृति और उससे जुडे लोगों पर आपकी पारखी नजर ही इन सफल रचनाओं का कारण बन जाती हैं .. बहुत अच्छी लगी यह रचना भी ।
ReplyDeleteपहाड़ के दु:ख दैन्य का सच्चाई से वर्णन हुआ है इस कविता में। धन्यवाद।
ReplyDeleteपहाड़ के दर्द को शब्दों में बखूबी पिरोया है आपने.. इंसान कुछ भी नहीं छोडेगा.. एक दिन खुद को भी नहीं.
ReplyDeleteभुवन वेणु
लूज़ शंटिंग
A superb poem on hill life.Thanks
ReplyDeleteकविता यह सच्ची है
ReplyDeleteसच्चाई नहीं है अच्छी
पर कविता बहुत अच्छी है।
अविनाश जी की पंक्तियाँ चुरा रही हूँ.....!!
बहुत ही ख़ूबसूरत कविता लिखा है आपने!
ReplyDeleteसमूची प्रकृति के हिस्से में अब दुख ही है...
ReplyDeleteउसकी सबसे खास संतान जो कपूत साबित हो रही है...
पहाड़ लोगों को सुख देकर
ReplyDeleteदुख का पहाड़ बनता जा रहा है
सोचने को विवश करती रचना ....
पड़ी जीवन पर बेहतरीन कविता ...सच बयां करती
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
कठोर यथार्थ का प्रभावी चित्रण!
ReplyDeleteहरकीरत जी नहीं है यह चोरी
ReplyDeleteयह तो सीधी डकैती है
पसंद हमें चोर नहीं
डकैत ही पसंद आते हैं।
और आपको पंक्तियां पसंद आईं
विचार भाये
आपने अपनी टिप्पणी में लगाये
यह तो पंक्तियों का सौभाग्य है।
ऐसी चोरी ...... चोरी नहीं डकैती
हो रोज (गुलाब नहीं प्रतिदिन)
इस बहाने लिख सकेंगे
विचार नये हरदिन।
आपने तो ई+नाम भी दिया है
नाम भी दिया है
तो न यह चोरी
न यह डकैती है
यह भावों के बीजों से
की गई खेती है।
आप तो किसान हुईं
और किसान देश की शान हैं
ईमानदारी की पहचान हैं
जब हम ही नहीं परेशां
तो आप काहे परेशान हैं।
Sushil jee,
ReplyDeletekavita mein prakriti kaa
sajeev chitra ukerne mein shayad
hee koee saanee ho aapka."Pahaad
kaa dukh"kavita mein ek baar phir
aapkee lekhnee ne jaadoo dikhaayaa
hai.Badhaaee.
अविनाश ने सही ही कहा है कि सच्चाई नहीं है अच्छी लेकिन कविता अच्छी है।
ReplyDeleteये तो कवि का दिल ही है जो सबके दुख को बयां करता है। ्प्रकृति आपकी आभारी रहेगी। मेरे ब्लोग पर आने के बाद देखें शायद कुछ मिल जाए। आपका स्वागत है।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई
ReplyDeleteBahut sundar abhivayakti.. bahut-2 badhai...
ReplyDeleteपहाड़ को जीवंत करा देतें हैं आप
ReplyDeleteज़िन्दगी का एक पक्ष बिताया है पहाड़ पर मैंने
व्यथा व मजबूरियाँ देखी हैं वहाँ पर...
काम के बोझ से कमर झुकते देखी है
सुन्दर सच्चा भाव लिए अद्भुत अभिव्यक्ति !!
अच्छा लगता है कि जब एक बार फ़िर कवि फ़ूल पत्तियो और चिडियो की शरणगाह मे लौट रहे है तो सुशील पूरी प्रतिबद्धता से मनुष्य के पक्ष मे खडे है।
ReplyDeleteपहाड़ का दुःख...
ReplyDeleteदुःख का पहाड़...
हाड़ का दुःख...
दुःख का हाड़...
सब बतलाया आपने..
(थोडी सी चोरी मैंने भी की... या कहें तो प्रेरणा ली.. अविनाश जी की एक पंक्ति से...)
बहुत सुन्दर.. विवरण...
~जयंत
बहुत सशक्त अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteरामराम.
..पहाड़ के हिस्से में इस तरह नित आ रहे हैं नए दुख के पहाड़।
ReplyDeleteमार्मिक रचना है। कई सवाल उठाती जिसके जबाव शायद किसी हुक्मरान के पास नहीं हैं।
ji kamaal kar diya
ReplyDeletedard jata diya
pahaad ke dard se
dil dahla diya
magr majboori pahaad ki hai
insaan ne to apni suvidha banaa liya
बहुत ही संदर लगा पढ़ के. आपका ब्लॉग बहुत सुन्दर है और उससे भी सुन्दर इसका नाम है..
ReplyDelete... सुन्दर रचना, प्रसंशनीय।
ReplyDeleteइस व्यथा का बहुत ही सुन्दर वर्णन. आभार आपका और आपके संवेदनशीलता का.
ReplyDeletesusheel ji kawita bahut achhi hai, isme pure pahaar ka dard chhupa hai, naye pahar janm le rahe hai jo hariyali rahit hai aur paharon ka dukh badta ja raha hai, chalo kuch esa kare ke hum poorane paharo ko jinda kar sake, unme chetan bhar sake aur palaayan rok sake.
ReplyDeleteSubhash Raturi
Journalist
subhash.raturi@gmail.com
सुशील जी, आपकी कविताओं को पढ़ कर यह सोचने पर बाध्य हो गया हूं कि व्याकरण, छंदों के अनुसार ही बरतने की जिद हो तो भाषा और काव्य का विकास रुक जाएगा। रचना के केन्द्र में जीवन होता है जिसके लिए कथ्य, भावनाएं, उपयुक्त शैली, विचारों की आवश्यकता
ReplyDeleteहोती है, वे सभी गुण आपकी कविताओं में देखे जा सकते हैं।
'पहाड़ का दु:ख' पढ़ते ही अहसास होने लगता जैसे समस्त प्रकृति ही कर्राह रही हो। रचना को
बार-बार पढ़ने को मन करता है। बधाई।
महावीर शर्मा
पहाड़ की पीड़ा, दुःख-दर्द को बहुत सही शब्दों में व्यक्त किया है आपने. बात चाहे पेड़ों के अंधाधुंध कटान की हो, पलायन की या भू-स्खलन की, पहाड़ों के साथ खिलवाड़ हो रहा है इसमें कोई दोराय नहीं है.
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
hil-dul gaya pahad..... kafi achhi rachana.
ReplyDeletesunder pahaad kaa dukh
ReplyDeletesamajh , shabd abhivaykti deti nayi samajh, maun prrkriti ki bhavanayen samajh, dee aapney naasamajhon ko ek samajh.
.......Aapki rachnaa nisandeh aapkey bhavuk parntoo jagrook vakyatitva ka parichay de rahi hai.....yahi chaahiye aaj ke paathkon ko.
renu.
sunder pahaad kaa dukh
ReplyDeletesamajh , shabd abhivaykti deti nayi samajh, maun prrkriti ki bhavanayen samajh, dee aapney naasamajhon ko ek samajh.
.......Aapki rachnaa nisandeh aapkey bhavuk parntoo jagrook vakyatitva ka parichay de rahi hai.....yahi chaahiye aaj ke paathkon ko.
susheel ji ,
ReplyDeleteaapki is kavita ko main bahut der se padh raha hoon..
kya kahun kuch samjh nahi aa raha hai .. shabdo ne ek bahut bade canvas par koi chitr sa kheench diya ho..
bhai ..aapki lekhni ko naman ..
aur badhai ..