रविवार, 14 जून 2009

नंगे होते लोग-बाग

साभार: गूगल 
जैसे ही परदा उठेगा, काली रात लाँघकर
तुम्हारी नज़र इतिहास के नेपथ्य में जा अटकेंगी
जहाँ नंगेपन के खिलाफ़ लड़ते
पत्तों और खालों से अपनी देह ढकते
पाओगे तुम आदिमानवों को
सभ्यता की दहलीज़ पर अपना पहला क़दम रखते ।

घनघोर जंगलों का अंधेरा पसरा होगा तब
सब ओर पृथ्वी पर ।

कभी शिकारी जानवरों की नीली गुर्राहटों से
तो कभी तड़ित-झंझा की कौंध और आग़ की उठती लपटों से
भगदड़-सी मची होगी जंगल में ।

प्रकृति की हलचल और वीभत्स आदिम संघर्ष से डरकर जब
तुम लौट आना चाहोगे अपने समय में वापस,
रंगमंच पर दृश्य ही बदल दिया जायेगा --
'कलकल गाती नदियाँ और इन्द्रधनुषी आकाश की धूप में
प्रकृति खिली होगी उपवन की तरह
जिसके सुवास से महमहा उठोगे तुम
और उसके संगीत से तुम्हारे अंतस् के नूपुर खनकने लगेंगे।'

इस श्रव्य-दृश्य माधुर्य से ही कुछ रंग, चित्र, और ध्वनियाँ
चुन लिये होंगे हमारे पुरखों ने
अपने हृदय को पूरा करने के लिये
और उसके भीतर आलोड़ती कुछ नि:शब्द अनुभूतियाँ
फूट पड़ी होंगी बरबस गीत-कवितायें बनकर
पहली बार उसके होंठों पर कभी, --
यह सब सोचते हुये गहरे चिंतन में डूब जाओगे तुम कि
अपनी पूँछ और पशुता से विद्रोह करता हुआ
हज़ारो सालों तक दिमाग़ की भट्ठियों में सीझता हुआ
एक आदमी की तरह तनकर
किस तरह खड़ा हुआ होगा बानर-मानव ।

तभी मैं चिढ़कर तुम से एक सवाल पुँछूँगा -
'आदमी को नंगेपन की ओर लौटने में
कितने संयम की जरुरत है ? ' --
और फ़िर रंगमंच का परदा गिर जायेगा।
(और लोग तालियाँ बजाकर लौट आयेंगे अपने-अपने घर।)

पर यह सवाल तुमको मथती हुई
ले चलेगी दिन-दिन विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रहे
आदमी के जंगल में
जहाँ देखोगे, लड़कियों की अनगिन परछाईयाँ
अपने तन से किमरिक* उतार
रात को अपनी बाँहों में भर रही होंगी

..और अपने पीछे उन कितने उजले-धुले
'हिपॉक्रिटीक' चेहरों को नंगे कर रही होंगी
जो दिन में 'ग्लोबल-विलेज' के मसौदे को
अपनी बहस की प्याली में उबालते हैं, पर
रात गये अपने मुखौटे शताब्दी की चोर-गलियों में फेंक
'पब' की धूम-धड़ाकों में 'रॉक' धूनों की धमक़ पर
उन दिगम्बराओं की बाँहों में झूलते हैं।

सभ्यता की धूसरित दीवार पर
समय के खूँटों से टंगे
चौरसिया की बाँसूरी में अल्लारक्खा की संगत में
लता की आवाज़ में बिस्मिल्लाह की नौबत में
पंडित जसराज और भीमसेन की स्वर-लहरियों में.......
लोक-नृत्य की ठुमक में भी
ढूंढ़ते फिरोगे तुम
हलकान होकर अपनी खोयी आवाज़ें
पर हर ज़गह उघाड़ होती संस्कृति के चित्र-विचित्र देख
अपनी पीढ़ियों के नंगेपन चुपचाप सहते हुये
लज्जा से अपनी आँखें मीच लोगे।
*किमरिक = एक प्रकार का महीन चिकना वस्त्र (केम्ब्रिक का अपभ्रंश)

13 टिप्‍पणियां:

  1. तभी मैं चिढ़कर तुम से एक सवाल पुँछूँगा -
    'आदमी को नंगेपन की ओर लौटने में
    कितने संयम की जरुरत है ? ' --
    और फ़िर रंगमंच का परदा गिर जायेगा।
    (और लोग तालियाँ बजाकर लौट आयेंगे अपने-अपने घर।).............

    .................
    इस पोस्ट के बाद यह और जोडें
    :--
    और आदमी को नंगेपन की ओर लौटने में किसी संयम की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी.

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  2. hila kar rakh diya ji.................
    kavita kya hai....poori film hai..
    is abhinav aur saarthak film ko mera salaam !

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  3. अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।

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  4. मनोभावों अच्छी प्रस्तुति। किसी ने कहा है कि-

    प्रकृति के पुजारी हम आओ गलती सुधारें।
    बहुत भारी हो गए हैं आओ कपड़े उतारें।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  5. हर ज़गह उघाड़ होती संस्कृति के चित्र-विचित्र देख
    अपनी पीढ़ियों के नंगेपन चुपचाप सहते हुये
    लज्जा से अपनी आँखें मीच लोगे


    Gahri soch se upji rachnaa hai yeh....lajawaab likha

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  6. बहुत ही सुंदर,
    हर ज़गह उघाड़ होती संस्कृति के चित्र-विचित्र देख
    अपनी पीढ़ियों के नंगेपन चुपचाप सहते हुये
    लज्जा से अपनी आँखें मीच लोगे

    धन्यवाद

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  7. KAVIVAR SUSHEEL KUMAR JEE KEE
    LEKHNEE SE UPJEE EK AUR SASHAKT
    KAVITA.BHAAVON AUR SHABDON KAA
    SUNDAR SANGAM.PRABHAAVIT HUE BINAA
    NAHIN RAH SAKAA.

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  8. सही है आपने जो कुछ भी लिखी है उअसमे सिर्फ सच्चाई है ..............इस सच्चाई से आत्मा रोती है....

    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  9. ... बेहद गंभीर विषय पर प्रभावशाली अभिव्यक्ति, बधाईंयाँ !!!!!

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  10. कर सकते हो इंसान को नंगा
    कविता को नहीं कर सकते
    पर इंसान को नंगा होने के लिए
    कपड़े उतारने की जरूरत नहीं है
    वो तो अपने कुकर्मों से खुद ही
    नंगा हो चुका है
    कविता और व्‍यंग्‍य यानी अब तो
    साहित्‍य की प्रत्‍येक विधा इस
    अनेकता में नेक तत्‍व की तलाश
    करती तो है, पर होती है विफल
    सदा की तरह।

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  11. Ekdum kadva yatharth likha hai aapne.Chamatkrit hoon.Yah kavita kavi ki paini dristi ka parichayak hai.

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  12. It's A Totally slap on mouth of so called western culture in the name of Modernization and freedom fantastic

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