साभार: गूगल |
भूख से उपजी उस भाषा पर है
जो उसकी बुद्धि के
तिकड़मी दाँतों के बीच फँसती हुई
धीरे-धीरे कुर्सी के विज्ञापनों में तब्दील हो गयी है।
इस समय इतना ही काफ़ी है कि
तुम भूख मरने वाले अधमरे लोग
सत्ता-संप्रभुओं की मँडराती काली छायाओं के बीच
किसी तरह ज़िन्दा हो !
पर भूख से मर जाने वाले लोगों की अरथियों पर
भूख की ही भाषा में नित रचे जा रहे ढोंग के आँसू
और कितने दिन सहोगे तुम ?
क्योंकि भूख पर तुम्हारी जुंबिश अब तक
जोगीड़ा की आवाज़ जैसी रही है
शोधपत्रों से घोषणा-पत्रों तक जिसे
अक्षर-अक्षर अपने पक्ष में तोड़ लिया गया है।
और इस थकान भरी यात्रा में
ख़ून-पसीने से लथ-पथ तुम्हारी भूख ,
जागरण में टिकने के बजाय
तुम्हारी नींद में निढाल हो गयी है,
यह बेहद अफ़सोसनाक़ है।
बहुत दुखद है कि
उसकी हवस हमेशा
तुम्हारी भूख पर भारी पड़ती है
जो हरदम कूट-पीसकर तुमको खाती है।
yon prateet hota hai mano syaahi se nahin aansuon se likha hai aapne kavita ko.......
ReplyDeletesaadhu
saadhu
bahut khoob !
मर्मस्पर्शी .................सुन्दर अभिव्यक्ति ...........बहुत बढिया
ReplyDeleteबहुत दुखद है कि
ReplyDeleteउसकी हवस हमेशा
तुम्हारी भूख पर भारी पड़ती है
जो हरदम कूट-पीसकर तुमको खाती है।
-----------------------------
बहुत सुन्दर यथार्थ अभिव्यक्ति
बहुत खूब
यही सबसे बड़ा दुख है की
ReplyDeleteबहुत से लोग अपनी भूख के
लिए दूसरों के हाथ का निवाला छीन लेते है.,
बहुत अच्छा लिखा आपने,
सुंदर रचना..धन्यवाद
आप ने तो एक सच ही लिख दिया, बहुत सुंदर.
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बढ़िया रचना बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteसुशील जी पिछले दिनों हुई सार्थक अथवा निरर्थक बहस के समय मैंने चुप रहना बेहतर समझा क्योंकि मैं कविता का सम्मान करता हूँ. जो लोग बहस में थे उनको भी मैंने पढ़ा है आज एक पंक्ति लिखना चाहता हूँ कि "कविता पर प्रश्न करने का आप अधिकार रखते हैं "
ReplyDeleteउसकी नज़र तुम्हारी भूख पर नहीं
ReplyDeleteभूख से उपजी उस भाषा पर है
जो उसकी बुद्धि के
तिकड़मी दाँतों के बीच फँसती हुई
धीरे-धीरे कुर्सी के विज्ञापनों में तब्दील हो गयी है।
SAHEE BAAT HAI
सुशील जी,
ReplyDeleteआपको हिन्द-युग्म पर पढा, फिर आपके ब्लॉग तक आ पहुँचा। कमाल करते हैं आप।
बहुत छॊटे में ही पर सही परिभाषित किया है " अक्षर जब शब्द बनते हैं "
दो-एक मर्तफा आपसे मोबाईल पर संपर्क करने का प्रयास किया था शायद नेटवर्क नही चाह रहा होगा?
भूख की एक लाजवाब अभिव्यक्ति।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
kuch zyaada nahee keh saktaa...ye ek bahut hi saksham,bahut hi mature aur bahut hi shashakt rachna hai...har tareke se ek shaandaar kriti hai...tareef ko shabd kam hai mere paas
ReplyDeleteBhukh ke kai roop hain.Kahin satta ki bhook hai aur kahin roti ki bhook .Bukh ke liye hi sansar me sari tikdam karte hain log.
ReplyDeleteek achi kabita.kabi ke bhaon ki sambedanashilata ne ise ubhara hai.
ReplyDelete