साभार : गूगल |
क्योंकि हत्यारे. विचार अब
नये मुहावरों के साथ
भाषा की नई तमीज में
शताब्दी के चोर दरवाजों से
हमारे यहां घुसपैठ करते हैं
जहां निशाने पर ज्यादातर
नई पौध होती हैं
जिनके कल्लों से
जड़ों के अंतिम रंध्र तक
वे फैल जाते हैं
और सिर्फ़ इनकी
संवेदी शिराओं पर वार करते हैं
यह कितना कठिन समय है कि
टीवी स्क्रीनों और कंप्यूटर मॉनीटरों से
अपनी जादुई भाषा की तमक़
वे सीधे हमारे बिस्तरों पर फेंकते हैं
और लानतों के बाज़ार में
नई पीढ़ियों को ला खड़े करते हैं
जहां अपनी अक्लें और नस्लें खोकर
ये पीढ़ियां शरीर में ज़िन्दा पर
दिमाग से पंगु बन जाती हैं
और कृत्रिम सभ्यता के
मकड़जाल में फंस जाती हैं।
'विकासवाद उपभोक्तावाद
उदारीकरण वैश्वीकरण
विश्व अब एक ग्राम है ' -
और न जाने कितनी ही
भद्रगालियों के कनफोड़ शोर हैं
इस सभ्यता के बाजार में
जहां फैशन की ओट में
आधुनिकता के अनगिनत मुखौटे पहन
अपने भीतर के घावों को
हम हँसकर सालते रहते हैं
क्योंकि उन्होंने हमें
मातहत और पालतू बनाये रखने के
नये-नये सुघड़ तरीके
ईज़ाद किये हैं
जिनमें सबसे नायाब है -
आदमीपन मारना !
(वे अब आदमी नहीं मारते !)
दरअस्ल
हत्यारे विचारों के अलबम से निकलकर
वही पुराने नायक (बीसवीं सदी के)
इस सदी की सुबह की धूप में
हमारे चौबारों में उतर आये हैं
जिनकी काली करतूतों की भनक़
पहले-पहल कविताओं को लगी है
जैसे धरती के अन्दर हलचल की खबरें
बिलों में चूहों और
आकाश में परिन्दों को
पहले हुआ करती हैं।
लेकिन उनको मालूम पड़ गया है कि
कवितायें मकान होती हैं
जहां आदमी संजीदा और
पूरा ज़िन्दा होता है
और कविताएं
वक़्त की सियाही भी काटती हैं
इस वजह से बाज़ार में
जगह-जगह सलीबें
खड़ी की गई हैं और
कविताओं के खिलाफ़
तरह-तरह की साज़िशें चल रही हैं।
कविताएँ
नई पीढ़ियों के हश्र पर बिसूरती हैं कि
समय के इस पड़ाव के आगे
धरती नहीं बची है
पर बेताबी के पर
अपनी बांहों में बांध
वे उड़ रहे हैं
नई सभ्यता के 'मॉड'.. बन
तमस के साये में।
*****
बाज़ारवाद की आँधी मॆं हमारे पैर उखड़ रहे हैं और सब ओर तमस के साये हैं।सुन्दर और विचार-प्रधान कविता।सोचने को मजबूर।
ReplyDeleteकविता मॆं कहने का ढंग बहुत निराला है।
ReplyDeleteयह कितना कठिन समय है कि
ReplyDeleteटीवी स्क्रीनों और कंप्यूटर मॉनीटरों से
अपनी जादुई भाषा की तमक़
वे सीधे हमारे बिस्तरों पर फेंकते हैं
और लानतों के बाज़ार में
नई पीढ़ियों को ला खड़े करते हैं
जहां अपनी अक्लें और नस्लें खोकर
ये पीढ़ियां शरीर में ज़िन्दा पर
दिमाग से पंगु बन जाती हैं
और कृत्रिम सभ्यता के
मकड़जाल में फंस जाती हैं।
bahut shaandaar likhaa hai.अशोक सिंह,दुमका( झारखंड)
इंटरनेटीय प्रभाव का कविता में असरदारी चित्रण। लगता तो यह भी है कि अगला विश्वयुद्ध इंटरनेट पर लड़ा जाएगा।
ReplyDeleteAAPKEE YAH KAVITA " TAMAS KE SAAYE"
ReplyDeleteBHEE SOCHNE PAR VIVASH KARTEE HAI.
BHAVABHIVYAKTI ATI SUNDAR HAI.
नई सभ्यता के 'मॉड'.. बन
ReplyDeleteतमस के साये में।
जबाब नही सुशील जी बहुत अच्छी कविता कही आप ने, धन्यवाद
awinashji bilkul sahi kah rahe hain!!
ReplyDeletekafi sunder web page banaya hai aapne... dhanyavad..
ReplyDeleteचिंता वाजिब है .. चित्रण बढिया है .. अभी तो शुरूआत है .. आगे क्या होगा .. सोंचकर सचमुच भय होता है।
ReplyDeleteबहुत बढिया रचना है बधाई।
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