दुनिया के टंठों से आजिज आ
लौट आऊँगा जब तुम्हारे पास
तो गोद में मेरा सिर धर
अपनी खुरदरी हथेली से
जरा थपकियाना मुझे माँ
क्या बताऊँ
जब से तुम्हें छोड़
परदेस आया हूँ माँ
रोजी कमाने,
कभी नींद-भर सोया नहीं !
न खाया ही डकार मारकर
भरपेट खाना
तुम्हारे हाथ की रुखी-सूखी में
मन का जो स्वाद बसा था
वह पिज्जा बर्गर चाऊमिन जैसी चीजें खाते
मिल न पाया कभी यहाँ
जब भी ब्रेड और साऊस की कौर भरता हूँ
तुम्हारे हाथ की बथुआ-मेथी की साग
सोंधी लिट्टियाँ, आलू-बैंगन के भुरते
आम की चटनी और मच्छी-रोटी
की ही यादें ताजा हो आती हैं माँ
और यहाँ तो कनफोड़ संगीत के शोर में
पूरा शहर ही डूबा होता है
अलस्सुबह से रात तक...तुम्हारी
लोरी और सोहर सुने
बहुत दिन हुए माँ
आलीशान इमारत के इस आठ बाइ दस में
अब अपना दम बहुत घुटता है
सच माँ तू खुद
भरा-पूरा एक घर थी
जहाँ लड़-झगड़कर कोने में तिपाई बिछाकर
आराम से हम भाई-बहनें रहते थे
यद्यपि तुम्हारी झुर्रियों पर
तब भी दु:खों के जंगलों का डेरा था
फिर भी तुम्हारे आँचल में
सुख की घनी छाया किलकती थी
जेठ-आषाढ़ आँधी-बतास
सबकुछ झेलती थी तू
हँसी-खुशी हमारे लिये
जितना ठोस था तुम्हारा स्वभाव
कुसमय के साथ संघर्ष करते
उतनी ही तरल थी तू
(जल की तरह) हमारे लिये
जितनी अधीर हो उठती थी
जरा सी हमारे खाँसने-कुहरने से
उतने ही धीरज बटोरे बैठी थी तू
हर बाधा के पार उतर आने को
इतना आदर कौन करेगा माँ
एक तेरे सिवाय यहाँ ?
पृथ्वी ने चुपके से रख दी होगी
जरूर तुम्हारे अंतस में
शीत-ताप सहने की अद्भूत कला
(जो सुख-दु:ख भरे संवेदनों के बीच
प्रकृति में अनगिन चेहरे पालती है)
पर माँ, तुम्हारी पथरायी आँखों में अब
न सागर लहराते हैं न सपने
समय की सलीब से टंगी तू सचमुच
एक जीवित तस्वीर हो गयी है
जिसकी आरी-तिरछी लकीरों में
हम भाई-बहनों के बीते दिनों के पन्ने
फड़फड़ाते हैं हमें आगाह करते कि
उस ममता को कभी
अपनी स्मृति से जुदा न करना
जिसने बचा रखी है सारी दुनिया
इस निर्मम घोर कलि में
वर्ना कौन है बचवैया
इस दुनिया में हमारा अपना
एक तेरे बिन,
कहो न माँ... ?***
पर माँ, तुम्हारी पथरायी आँखों में अब
ReplyDeleteन सागर लहराते हैं न सपने
समय की सलीब से टंगी तू सचमुच
एक जीवित तस्वीर हो गयी है
जिसकी आरी-तिरछी लकीरों में
हम भाई-बहनों के बीते दिनों के पन्ने
फड़फड़ाते हैं हमें आगाह करते कि
उस ममता को कभी
अपनी स्मृति से जुदा न करना
जिसने बचा रखी है सारी दुनिया
इस निर्मम घोर कलि में
वर्ना कौन है बचवैया
इस दुनिया में हमारा अपना
एक तेरे बिन,
कहो न माँ... ?***
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बहुत ही मार्मिक रचना!
माँ की याद तो सभी को बहुत आती है!
क्योंकि माँ ममता का पर्याय ही तो है!
तुम्हारे हाथ की रुखी-सूखी में
ReplyDeleteमन का जो स्वाद बसा था
वह पिज्जा बर्गर चाऊमिन जैसी चीजें खाते
मिल न पाया कभी यहाँ
mil hi nahi sakta , bahut achhi rachna
मां के हाथ का मेथी बथुआ का साग ... भाई जी ... क्या याद दिलाया!
ReplyDeleteपूरी तरह यादों के गलियारे में चला गया हूं। उसका बनाया आम और मिर्ची का अंचार और बेसन की सब्जी ... उफ़्फ़!
इन महानगरों में बस जीवन कट रहा है जिया थोड़ी ही जा रहा।
Bahut marmik rachna....
ReplyDeletebahut samvensil aur marmik.....mujhe bhi maa ki yaad aa gyi..
ReplyDeleteदिल को छूने वाली ऐसी आत्मीय कविता के लिए बधाई।
ReplyDeleteएक एक शब्द मानो धड़क रहे हैं...इतना स्नेहिल भावोद्गार ह्रदय को स्पंदित कर विभोर किये दे रही है...
ReplyDeleteसाधुवाद इस सुन्दर रचना के लिए...
SANVEDNA JAGAATEE EK BAHUT ACHCHHEE KAVITA .
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