आज तो लड़ रहा हूँ
शब्दों के घर डेरा डाले
शब्दों के सौदागरों से
उनके मुहावरों से
शब्द जिनसे बेचैन हो रहे
बेबस और लाचार भी
रोजी-रोटी कमाना तो सबका धर्म है
जिसे निभा रहे कमोबेश हम सभी,
चलो, शब्द ने यदि रोटी का जुगाड़ भी किया है
तो हम उसे घृणित-नेत्रों से नहीं देखते
क्योंकि बनानेवाले ने शब्द के साथ-साथ
हाथ-पैर और पेट भी दिये
पर हम तो अपना सारा जीवन
उन शब्दों को ही सहजने में लगा रहे
जो कविता में व्यक्त होने को आतुर हैं पर जिसे
किसी खास भाषा और ढंग की ओट में
चमकाया जा रहा है, रोका जा रहा है
कविता में आकार लेने से
स्वविवेकाधिकार का उपयोग कर
शब्द-तंत्र के तमाशगीर के हाथों
शब्द
उसकी सत्ता का सोपान बन कर रह गया है।
रोजी-रोटी कमाना तो सबका धर्म है
जवाब देंहटाएंजिसे निभा रहे कमोबेश हम सभी,
चलो, शब्द ने यदि रोटी का जुगाड़ भी किया है
तो हम उसे घृणित-नेत्रों से नहीं देखते
क्योंकि बनानेवाले ने शब्द के साथ-साथ
हाथ-पैर और पेट भी दिये..
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जवाब नहीं आपका भी!
शब्दों से रोटी तो कमाई जा सकती है!
मगर बंगला-गाड़ी और
स्विस बैंकों में जमा करने के लिए धन नहीं!
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सुन्दर अभिव्यक्ति!
shirshk adbhut. man ne saheja bhao ko, kin sabdo me...we hi jane.
जवाब देंहटाएंशब्द की व्यथा को कविता में सुंदरता से उकेरा है. बधाई.
जवाब देंहटाएंएक अच्छी कविता। शब्दों के साथ खिलवाड़ कहें या धोखा, हर जगह हो रहा है। आपने सही लिखा है -
जवाब देंहटाएंशब्द-तंत्र के तमाशगीर के हाथों
शब्द
उसकी सत्ता का सोपान बन कर रह गया है।
अच्छी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंBAHUT HI LAJAWAAB RACHNA ..
जवाब देंहटाएंLajawaab kavita ke liye meree badhaaee !
जवाब देंहटाएंसही कहा...
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