शनिवार, 18 जून 2011

कल सुनना बाबू


आज तो लड़ रहा हूँ
शब्दों के घर डेरा डाले
शब्दों के सौदागरों से
उनके मुहावरों से
शब्द जिनसे बेचैन हो रहे
बेबस और लाचार भी

रोजी-रोटी कमाना तो सबका धर्म है
जिसे निभा रहे कमोबेश हम सभी,
चलो, शब्द ने यदि रोटी का जुगाड़ भी किया है
तो हम उसे घृणित-नेत्रों से नहीं देखते
क्योंकि बनानेवाले ने शब्द के साथ-साथ
हाथ-पैर और पेट भी दिये

पर हम तो अपना सारा जीवन
उन शब्दों को ही सहजने में लगा रहे
जो कविता में व्यक्त होने को आतुर हैं पर जिसे
किसी खास भाषा और ढंग की ओट में
चमकाया जा रहा है, रोका जा रहा है
कविता में आकार लेने से
स्वविवेकाधिकार का उपयोग कर

शब्द-तंत्र के तमाशगीर के हाथों
शब्द
उसकी सत्ता का सोपान बन कर रह गया है।
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8 टिप्‍पणियां:

  1. रोजी-रोटी कमाना तो सबका धर्म है
    जिसे निभा रहे कमोबेश हम सभी,
    चलो, शब्द ने यदि रोटी का जुगाड़ भी किया है
    तो हम उसे घृणित-नेत्रों से नहीं देखते
    क्योंकि बनानेवाले ने शब्द के साथ-साथ
    हाथ-पैर और पेट भी दिये..
    --
    जवाब नहीं आपका भी!
    शब्दों से रोटी तो कमाई जा सकती है!
    मगर बंगला-गाड़ी और
    स्विस बैंकों में जमा करने के लिए धन नहीं!
    --
    सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  2. शब्द की व्यथा को कविता में सुंदरता से उकेरा है. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. एक अच्छी कविता। शब्दों के साथ खिलवाड़ कहें या धोखा, हर जगह हो रहा है। आपने सही लिखा है -
    शब्द-तंत्र के तमाशगीर के हाथों
    शब्द
    उसकी सत्ता का सोपान बन कर रह गया है।

    जवाब देंहटाएं

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