Saturday, October 27, 2012

इस यात्रा में..


मारे गाँव-घर, नदी, जल, जनपद और रास्ते   
कितने बदल गए देखते-देखते इस यात्रा में
कपड़े, फैशन और लोगों से मिलने-जुलने की रिवाज़ की तरह

कितनी ही अनमोल चीजें रोज़ छूटती गईं हमसे
और यादों के भँवर में समाती गईं  -
किसी का बचपन
      किसी का प्यार
            किसी की देह-गंध  
                  किसी के चेहरे का आब
                        अपने बाबा की ऐनक और गीता
और किताब के पन्ने में साल-दर-साल सँजोकर रखा मेरा पीपल का एक पत्ता

कोई अपना सबसे अजीज़ दोस्त
      तो कोई अपना सबसे अच्छा समय
            खो चुका चलते-चलते इस यात्रा में

अपनों का दिया दु:ख कोई साल रहा बरसों से अब तक अपने सीने में
कोई बीत चुके रंगों की उछरी लकीरें गिन रहा अपने ललाट पर अब भी

इस यात्रा में कई वक्ता अपनी आवाज़ें खो बैठे और हकलाने लगे
धरती को सोहर की तरह गाने वाले कोकिल-कंठ गूंगे-से हो गए  
कई कवि-लेखक अपनी मूर्धन्य रचना की पंक्तियाँ तक भूल गए
पर सबसे बड़ा दु;ख यह है कि बुढ़िया की लाठी खो गई इस यात्रा में

गोधूलि की बेला में
इस यात्रा में दिन इस कदर डूबने को है कि  
साँझ जैसे-जैसे गिर रही धरती पर,
धरती अपना सबसे प्यारा राग भूलती जा रही  

न जाने किस देस, किस महासागर से उठी यह आग है कि
( कि कौन सी समय की मार है कि )
उसकी लपटों में भूसी की आग की तरह जल रहे  
गाँव-घर, पगडंडियाँ, नदी, जल और जनपद सब-ओर
और धुआँ का गुबार-सा फैल रहा पूरब में

जहाँ से सुबह सूरज पृथ्वी के लिए अपने शौर्य की लालिमा,
आशा, ओस, नमी और दूब की ताजगी लेकर उठा था,
वहाँ साँझ ढलते ही उसकी शलजमी आँखें क्यों इतनी डबडबा गईं

इस यात्रा में !

Photobucket

12 comments:

  1. कोई खुश नहीं,सब ढूंढ रहे वही गोधूली ... वही सोंधा चूल्हा , वही सोंधापन .... फिर क्यूँ सब पराये हो गए !

    ReplyDelete
  2. आपकी कविता-रचना में उत्तरोत्तर निखार आश्वस्त करता है। आपकी कथन-भंगी विशिष्ट है। लय और प्रवाह से रचना कला-कृति की गरिमा से सहज ही विभूषित दृग्गोचर आती है। कविताओं की अन्तर्वस्तु में भी नवीनता है। आप अपनी रचना प्रेषित करते हैं; धन्यवाद।
    *महेंद्रभटनागर
    फ़ोन : 0751-4092908

    ReplyDelete
  3. बहुत सटीक .. सुंदर भावाभिव्‍यक्ति ..

    ReplyDelete
  4. सफर में कुछ नया मिलता है तो कुछ पुराना बिछडता है. यही जीवन है. बहुत सुंदर प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  5. अपने बाबा की ऐनक और गीता
    और किताब के पन्ने में साल-दर-साल सँजोकर रखा मेरा पीपल का एक पत्ता

    क्या बात है ......
    आमीन...!!

    ReplyDelete
  6. सच को उघाडती हुई एक मार्मिक कविता के लिए बधाई.

    ReplyDelete
  7. कुछ पंक्तियों में ही आपकी यह रचना मन को बहुत लम्बे सफ़र पर ले जाती है. बहुत अच्छी कृति है आपकी.

    ReplyDelete
  8. NISSANDEH SUSHEEL MAUJOODA DAUR KE SARSHRESHTH
    KAVI HAIN . ANYA KAVITAAON KEE TARAH UNKEE YAH
    KAVITA BHEE HRIDAYSPARSHEE HAI.

    ReplyDelete
  9. ईमेल पर प्राप्त प्रतिक्रिया -
    प्रिय सुशील जी ,
    आपकी कविताओं का मैं फैन हूँ . कुछ न कुछ नया कहने में आप दक्ष हैं .

    ढेरों शुभ कामनाओं के साथ ,
    प्राण शर्मा

    ReplyDelete
  10. बहुत सटीक कहा...उम्दा रचना...

    ReplyDelete

टिप्पणी-प्रकोष्ठ में आपका स्वागत है! रचनाओं पर आपकी गंभीर और समालोचनात्मक टिप्पणियाँ मुझे बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। अत: कृप्या बेबाक़ी से अपनी राय रखें...