धरती जितनी बची है कविता में
उतनी ही कविता भी साबूत है
धरती के प्रांतरों में कहीं-न-कहीं
यानी कोई बीज अभी अँखुआ रहा होगा नम-प्रस्तरों के भीतर फूटने को
कोई गीत आकार ले रहा होगा गँवार गड़ेरिया के कंठ में
कोई बच्चा अभी बन रहा होगा माता के गर्भ में
कोई नवजात पत्ता गहरी नींद कोपलों के भीतर सो रहा होगा
कोई रंग कोई दृश्य चित्रकार की कल्पना में अभी जाग रहा होगा
- धरती इस तरह सिरज रही होगी कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं चुपचाप
- धरती इस तरह सिरज रही होगी कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं चुपचाप
इतनी आशा बची है जब धरती पर
फिर भला कवि-मन हमारा कैसे निराश होगा ?
समय चाहे बर्फ बनकर जितना भी जम जाए दिमाग की शातिर नसों में,
हृदय का कोई कोना तो बचा ही रहेगा धरती-गीत की सराहना के लिये
आँखें दुनिया की कौंध में चाहे जितनी चौंधिया जाय
कोई आँख फिर भी ऊर्ध्व टिकी रहेंगी
अपनी प्रेयसी या प्रेमी के दीदार की प्रतीक्षा में
सभ्यता चाहे कितनी भी क्रूर हो जाय
कोई हाथ तो टटोलने को तरसेंगे उस हाथ को
जिसमें रिश्तों की गर्माहट अभी शेष है!
शब्द भी कहीं न कहीं सक्रिय रहेंगे कवि की आत्मा में
और वह बीज वह गीत वह बच्चा वह पत्ता
वह रंग वह आशा, आँख वह हाथ जैसी चीजें कवि के शब्द बनकर
कहीं-न-कहीं जीवित रहेंगी कविता में |
गज़ब!!
ReplyDeleteजयप्रकाश मानस (सृजनगाथा) srijangatha@gmail.com की ईमेल पर प्राप्त टिप्पणी -
ReplyDeleteचिंतनशील प्राकृतिक मन की शाश्वत कविता । धन्यवाद ।
मौलिक और अनूठी | बधाई |
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ReplyDeleteसभ्यता चाहे कितनी भी क्रूर हो जाय
कोई हाथ तो टटोलने को तरसेंगे उस हाथ को
जिसमें रिश्तों की गर्माहट अभी शेष है! ... ज़रूर ... इसी शेष में विशेष है
बहुत ही अच्छी सशक्त कविता के लिए बधाई। मुझे बहुत पहले लिखी अपनी एक कविता याद आ गई। अन्यथा मत लीजिए, उसे यहां लगा रहा हूं। पढ़िए:
ReplyDeleteबहुत कुछ है अभी
-दिविक रमेश
कितनी भी भयानक हों सूचनाएं
क्रूर हों कितनी भी भविष्यवाणियां
घेर लिया हो चाहे कितनी ही आशंकाओं ने
पर है अभी शेष बहुत कुछ
अभी मरा नहीं है पानी
हिल जाता है जो भीतर तक
सुनते ही आग।
अभी शेष है बेचैनी बीज में
अभी नहीं हुई चोट अकेली
है अभी शेष दर्द
पड़ोसी में उसका।
हैं अभी घरों के पास
मुहावरों में
मंडराती छतें।
है अभी बहुत कुछ
बहुत कुछ है पृथ्वी पर।
गीतों के पास हैं अभी वाद्ययंत्र
वाद्ययंत्रों के पास हैं अभी सपने
सपनों के पास हैं अभी नींदें
नींदों के पास अभी रातें
रातों के पास हैं अभी एकान्त
एकान्तों के पास हैं अभी विचार
विचारों के पास हैं अभी वृक्ष
वृक्षों पास हैं अभी छाहें
छाहों के पास हैं अभी पथिक
पथिकों के पास हैं अभी राहें
राहों के पास हैं अभी गन्तव्य
गन्तव्यों के पास हैं अभी क्षितिज
क्षितिजों के पास हैं अभी आकाश
आकाशों के पास हैं अभी शब्द
शब्दों के पास हैं अभी कविताएं
कविताओं के पास हैं अभी मनुष्य
मनुष्यों के पास है अभी पृथ्वी।
है अभी बहुत कुछ
बहुत कुछ है पृथ्वी पर
बहुत कुछ।
भाई सुशील जी, यह कविता आपकी श्रेष्ठतम कविताओं में गिनी जानी चाहिए। एक एक पंक्ति अर्थमय, ज़ोरदार ! एक सुझाव -
ReplyDelete(यानी धरती सिरज रही होगी कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं चुपचाप) ब्रैकेट में लिखी यह पंक्ति को बिना ब्रैकेट और 'यानी' शब्द के 'कोई बीज अभी अँखुआ रहा होगा नम-प्रस्तरों के भीतर फूटने को' पंक्ति से पहले कर लें तो अच्छा रहेगा। एक प्रभावशील मन को छूने वाली कविता के लिए बधाई !
रश्मि प्रभा... has left a new comment on your post "शब्द सक्रिय रहेंगे":
ReplyDeleteसभ्यता चाहे कितनी भी क्रूर हो जाय
कोई हाथ तो टटोलने को तरसेंगे उस हाथ को
जिसमें रिश्तों की गर्माहट अभी शेष है! ... ज़रूर ... इसी शेष में विशेष है
Udan Tashtari has left a new comment on your post "शब्द सक्रिय रहेंगे":
ReplyDeleteगज़ब!!
Divik Ramesh divik_ramesh@yahoo.com की टिप्पणी जो मेरे ईमेल पर मिली -
ReplyDeleteप्रिय सुशील जी,
आपकी कविता बहुत ही अच्छी ऒर सशक्त हॆ। बधाई। इसने मुझे अप्नी एक काफी पहली लिखी गई कविता की याद करा दी हॆ। उसे आपके पढ़ने के लिए याहां लगा रहा हूं। अन्यथा मत लीजिएगा।
बहुत कुछ हॆ अभी
-दिविक रमेश
पूरी कविता पढ़ जाने के बाद ह्रदय से दो शब्द निकले - बहुत खूब !
ReplyDeleteप्राण शर्मा
10 नवम्बर 2012 9:59 am को, सुशील कुमार ने लिखा:
aapka aashad pranamya hai.
ReplyDeleteAcharya pandett sundarlalsaudiyal Sastri +919410270265
ReplyDeleteExdental prierd mahamrtunjay mantra & narayanbli
ReplyDeleteHinduism
ReplyDeletePrierd
Indian