रविवार, 3 फ़रवरी 2013

थकी – हारी गंगा

[चित्र : गूगल से साभार ]
हते हैं – राजा सगर के 
साठ हजार शापित पुत्रों को तारना था
स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारना था
वेगवती उसकी लहरों में सृष्टि
बह न जाय
महादेव ने इसलिये
धार उसकी अपनी जटाओं में बाँध
पृथ्वी को उपकृत किया
और तब
भागीरथ – प्रयत्न से उतरी गंगा ने
अपने अंचल में
धरती को अपना लाड़ – प्यार दिया

गंगा को बाँधने-छीनने का फिर सिलसिला शुरू हुआ
हरिद्वार से नरोरा तक –
टिहरी से कानपुर , फरक्का तक
भोग–लिप्सा की अनंत जटाओं ने
कितनी बार ! कितनी बार !! गंगा को बांधा
मार्ग बदर किया   

नित्य दु:ख – बलाघात सहती
गंगोत्री से खाड़ी तक
वह पीड़िता आदिम पशुता के बीच हाँफती
टूटती जाती है बहती जाती है किसी तरह

छटाएँ उसकी जितनी गंगोत्री में
उतनी नहीं काशी में
बक्सर सोनपुर पटना में उदास - सी
नवगछिया, मणिहारी में तो टूट गई है रेशा – रेशा
उसकी देह टीले टापुओं खोहों से भर गई हैं
जहां दिन में भी श्मशान सी उदासी पसरी होती है
फिर भी सदियों से कचड़े ढोती
म्लान कृशकाया
थकी – हारी सुरसरि
अपनी ही मुक्ति की तलाश में
घिसटती हुई बहती जाती है|
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6 टिप्‍पणियां:

  1. गंगा लाखों को जीवन देती है, आपकी यह रचना मानो गंगा को जीवन प्रदान कर रही है। कोटी-कोटी धन्यवाद जीवंत रचना के लिए।
    .........
    जितेंद्र

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  2. सुंदर अतिसुन्दर सारगर्भित रचना , बधाई

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  3. थकी – हारी सुरसरि
    अपनी ही मुक्ति की तलाश में
    घिसटती हुई बहती जाती है|
    Bahut sundar satya likha hai

    जवाब देंहटाएं

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