1 -
शब्द जब
घिसने लगते हैं
दिनचर्या के भागमभाग में
भाव तब
कतराने लगते हैं
कविता में उसे आकार देने से
2 –
कवि फिर तराशता है उसे
अनुभव की खराद पर
उसमें नई चमक पैदा करता है
तब सृजन जन का कंठहार बन जाता है
3 –
पर लोक लेते हैं मतलब के अ-कवि जन उसे
और पोस्टर - विज्ञापन - बैनर - झंडे बनाकर
कथित जनमंचों के खंभों से टांग देते हैं
जहाँ गहरी अनुभूतियों में पगी संज्ञाएँ
रूढ होने लगती हैं
विशेषण पुराने पड़ने लगते हैं
क्रियाएँ मरने लगती हैं
मुहावरे अपने अर्थ खोने लगते हैं
4 –
शब्द पनपता है बेतरतीव
जनपद में, लोकवाणी में
सबसे ज्यादा सुरक्षित रहता है
सड़क के लोगों में
लेकिन सबसे अधिक पिटता दिखता है
संसद और ऊँची सभाओं में
5-
इस दुनिया में कोई शब्द बेचता है,
कोई शब्द बुहारता है
तो कोई शब्द से खेलता है
अकेला कवि ही होगा शायद
जो शब्द को जीता है !
शब्द तो रुई के फाहों से उड़ते हैं हवाओं में
ReplyDeleteमन के आँगन में
मस्तिष्क की संकरी गलियों में
जहाँ रुका पथिक
शब्द प्यास बुझाने लगते हैं
भाई सुशील जी, शब्द को लेकर बहुत सन्दर कविता पंक्तियां हैं। बधाई। परन्तु अन्तिम पंक्तियां धूमिल की उन कविता पंक्तियों की याद दिलाती हैं जिनमें वह यूं लिखते हैं - एक आदमी रोटी बेलता है/ दूसरा आदमी/रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी है/ जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/ बल्कि रोटी से खेलता है…' खैर, आपकी पंक्तियां अपनी जगह हैं।
ReplyDeleteEK SE BADH KAR EK KAVITA HAI . BADHAAEE .
ReplyDeleteइस दुनिया में कोई शब्द बेचता है,
ReplyDeleteकोई शब्द बुहारता है
तो कोई शब्द से खेलता है
अकेला कवि ही होगा शायद
जो शब्द को जीता है !
बहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति .एक एक बात सही कही है आपने कैग [विनोद राय ] व् मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन ]की समझ व् संवैधानिक स्थिति का कोई मुकाबला नहीं .