पगली
बसंती बयार -
देह से घूमते - लिपटते धूल-कण
गोधूलि
की बेला -
लौटते
मवेशियों के खुरों से मटमैली होती
डूबती साँझ
उसमें
बहते बजते लोक-शब्द
सब लौट
आ
लौट आ ओ समय - धार
लौट आ ओ समय - धार
हाथ
की बनी गाँठ
अब दाँत
से भी नहीं खुलती
राह
में इतनी दीवारें कि
घर का
पता सब भूल गए
लौट आ ओ समय - धार
लौट आ ओ समय - धार
कोस
भर नदी ने
अपने
रस्ते बदल लिए
पगडंडियाँ
सब बिला गईं
दोस्त-
यार अपने गाँव छोड़
धीरे
– धीरे जाने कहाँ – कहाँ चले गए
साथ
की लड़कियाँ काम-धाम की खोज में
बहुत
दूर-दूर चली गईं
न गीत
न धुन न थाप न पदचाप
न चौपाल
न जामुन-पीपल-महुआ-पलाश के पेड़
दादी
के स्वर्गवास के बाद लोरी
नहीँ
सुनाई देती
आया
हूँ बरसों बाद अपना गाँव
पर ढूँढ
नहीं पा रहा अपना वह गाँव
बहुत
बदला-बदला सा है अपना गाँव
ईंट-कंक्रीट
से बन रहे अपने गाँव में
बहुत
बदले-बदले से दिख रहे अब लोग,
- - थमे हुए स्वर, गीत-संगीत, रीति-रिवाज
कहाँ
है इस गाँव में मेरा गाँव ?
यहीं कहीं था मेरा गाँव
यह तो रुका हुआ ठाँव है
नहीँ
बह रहा मेरा गाँव
हे भगवन,
मेरा
गाँव अब तरल नहीँ रहा
वह तो
नि: शब्द, मौन और ठोस हो गया है !लौट आ ओ समय - धार |
न समय लौटकर आयगा न वह परिवेश ,हाँ यादें बार बार दस्तक देती रहेगी --- बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंLatest post हे निराकार!
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Hridaysparshi rachna
जवाब देंहटाएंवे दिन केवल यादों में ही रह गए हैं...बहुत भावपूर्ण रचना..
जवाब देंहटाएंBahut sundar
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