बुधवार, 25 सितंबर 2013

लौट आ ओ समय - धार

साभार : गूगल 
लौट आ ओ समय - धार 
पगली बसंती बयार -
देह से घूमते - लिपटते धूल-कण
गोधूलि की बेला -
लौटते मवेशियों के खुरों से मटमैली होती 
डूबती साँझ
उसमें बहते बजते लोक-शब्द
सब लौट आ
लौट आ ओ समय - धार 

हाथ की बनी गाँठ
अब दाँत से भी नहीं खुलती
राह में इतनी दीवारें कि
घर का पता सब भूल गए 
लौट आ ओ समय - धार 

कोस भर नदी ने  
अपने रस्ते बदल लिए
पगडंडियाँ सब बिला गईं  
दोस्त- यार अपने गाँव छोड़
धीरे – धीरे जाने कहाँ – कहाँ चले गए
साथ की लड़कियाँ काम-धाम की खोज में
बहुत दूर-दूर चली गईं
न गीत न धुन न थाप न पदचाप
न चौपाल न जामुन-पीपल-महुआ-पलाश के पेड़

दादी के स्वर्गवास के बाद लोरी
नहीँ सुनाई देती

आया हूँ बरसों बाद अपना गाँव
पर ढूँढ नहीं पा रहा अपना वह गाँव
बहुत बदला-बदला सा है अपना गाँव
ईंट-कंक्रीट से बन रहे अपने गाँव में
बहुत बदले-बदले से दिख रहे अब लोग,
-      -  थमे हुए स्वर, गीत-संगीत, रीति-रिवाज

कहाँ है इस गाँव में मेरा गाँव ?
यहीं कहीं था मेरा गाँव 
यह तो रुका हुआ ठाँव है
नहीँ बह रहा मेरा गाँव
हे भगवन,
मेरा गाँव अब तरल नहीँ रहा
वह तो नि: शब्द, मौन और ठोस हो गया है !
लौट आ ओ समय - धार |
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