अब जबकि शैलप्रिया स्मृति न्यास की ओर से प्रथम शैलप्रिया स्मृति सम्मान झारखंड की कवयित्री निर्मला पुतुल को रांची में 15 दिसंबर 2013 को आयोजित एक कार्यक्रम में प्रदान किया गया है, प्रस्तुत आलेख का पुनर्पाठ समय की माँग हो गई है| यहाँ बताते चलें कि इस सम्मान के निर्णायक मंडल में सर्वश्री रविभूषण, महादेव टोप्पो और प्रियदर्शन शामिल हैं और निर्णायक मंडल ने सम्मान पर एक राय से फ़ैसला किया है। यह बात भी उतनी दीगर है कि निर्मला पुतुल का पहला काव्य संग्रह नगाड़े की तरह बजते शब्द और दूसरा काव्य - संग्रह अपने घर की तलाश में की कविताएँ मूलत: संताली भाषा में हैं और जिनके भाषा-रूपान्तकार अशोक सिंह हैं के हिन्दी - शब्द पुतुल के नाम से अब तक आलोचकों की कानों में बज रहे हैं और बाजार में बिक रहे हैं जबकि निर्मला के खुद का हिन्दी में रचा ( अनूदित नहीं ) तीसरा काव्य-संग्रह बेघर सपने कुछ साल पहले ही आया पर उस पर कहीं दूर-दूर तक कोई चर्चा नहीं हुई जो अपने आप में एक शोध का विषय हो सकता है |
प्रस्तुत आलेख की पृष्ठभूमि -
‘मूल रचना बनाम अनुवाद’ एक चर्चित कवयित्री और एक अनुवादक की रचनाशीलता को आधार बनाकर लिखी गई एक ऐसी सच्चाई है जो बड़ी- बड़ी पत्रिकाओं के दिग्ग्जों को पच नहीं पाया। इसलिये ‘हंस’- नई दिल्ली, वर्तमान- साहित्य-अलीगढ़ , अक्षरपर्व’- रायपुर जैसी कई पत्रिकाओं ने विवशता जा़हिर करते हुए उसे मुझे वापस लौटा दिया था क्योंकि वह आलेख न सिर्फ़ हिंदी साहित्य में अनुवादकों के साथ आजकल हो रही ज्यादतियों और वंचनाओं की ओर ईशारा करता है बल्कि हमारे आलोचकों और साहित्य के कई जाने-माने चेहरों की साहित्य में निर्णायक भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। जब मैं निराश होकर बैठ गया तब एक दिन मुझे अचानक ‘भारतीय लेखक’-संपाद्क हरिपाल त्यागी के मार्फ़त उनकी पत्रिका में छापने का स्वीकृति-पत्र प्राप्त हुआ। वहां रचना के छापे जाने के बाद इस गंभीर चर्चा भी हुई। तब अपने ब्लॉग ‘वातायन’ पर लगाने के लिये श्री रूपसिंह चन्देल जी ने भी मुझे वह युनिकोड फॉन्ट में टाईपकर भेजने को कहा। वह आलेख वहां प्रकाशित हुआ माह फरवरी २००८ में|
लिंक यहां है- वातायन
इसके बाद यह आलेख जरूरी समझते हुए इसको गद्यकोश में देने के लिये श्री अनिल जनविजय जी ने ईमेल से संपर्क साधा। वह आलेख गद्य-कोश में यहाँ छापी गयी है - गद्यकोश
यूनिकोड फांट में यहाँ सुविधा के लिए पूरा आलेख प्रस्तुत है -
( - `पेड़` कविता से : रचना अशोक सिंह
`उन्न्यन`/अंक-२६/पृष्ठ सं-१९३)
--सुशील कुमार/हंसनिवास/कालीमंडा/हरनाकुडीरोड/पुराना दुमका/दुमका/झारखंड-८१४१०१
इसके बाद यह आलेख जरूरी समझते हुए इसको गद्यकोश में देने के लिये श्री अनिल जनविजय जी ने ईमेल से संपर्क साधा। वह आलेख गद्य-कोश में यहाँ छापी गयी है - गद्यकोश
इस पर सर्वश्री सुरेश सलिल., उद्भ्रांत जैसे कई साहित्य की जानी - मानी हस्तियों के बीच बात-विमर्श-विवाद का भी दौर चला। पर मैंने यह आलेख भारतीय अनुवाद परिषद की अनुवाद पर केन्द्रित गंभीर पत्रिका ‘अनुवाद’,जो केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से दिल्ली से निकाली जाती है में छपवाने के उद्देश्य से लिखी थी । किन्तु २००७ में डा. हरीश कुमार सेठी जो ‘अनुवाद’ पत्रिका के कोर ग्रुप के सदस्य हैं, का पत्र मुझे प्राप्त हुआ था कि अगर मैं इस आलेख में कतिपय संशोधन कर दूँ तो उसे ‘अनुवाद’ में छापा जा सकता है। लेकिन मैंने ऐसा करने साफ़ मना कर दिया। फलत: यह रचना वहां फाईल में छपने की बाट लम्बे अरसे तक जोहती रही पर न जाने क्यों लगभग दो साल बाद ‘अनुवाद’ के जनवरी-मार्च- २००९ अंक- १३८ में हु-ब-हु छापी गयी जिसका स्कैन किया हुआ पेज और यूनिकोड टाईप वर्जन , दोनों यहाँ पढ़ने के निहितार्थ उपलबध कराया जा रहा है |आप भी अनुवाद पर आधृत इस आलेख को पढ़ें और हिन्दी साहित्य के पुरोधाओं द्वारा अनूदित रचना को मूल रचना में तब्दील करने की लगातार रची जा रही वंचना पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें -
मूल रचना बनाम अनुवाद
--- सुशील कुमार
हर बेचैन स्त्री तलाशती है
घर प्रेम और जाति से अलग
अपनी एक ऐसी जमीन
जो सिर्फ़ उसकी अपनी हो
एक उन्मुक्त आकाश
जो शब्दों से परे हो "
(`नगाड़े की तरह बजते शब्द`- पृष्ठ- ०९)
लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की काव्यभूमि पर निर्मला पुतुल की जमीन कितनी अपनी है, हम आगे खुलेंगे इस आत्मसंशय के साथ कि उस ऊसर जमीन को अगर उर्वर प्रदेश न बनाया गया होता तो कैक्टस, नागफनी और बबूल सरीखे पेड़-पौधे ही वहां अपनी जड़ें जमा पाते!
--- सुशील कुमार
हर बेचैन स्त्री तलाशती है
घर प्रेम और जाति से अलग
अपनी एक ऐसी जमीन
जो सिर्फ़ उसकी अपनी हो
एक उन्मुक्त आकाश
जो शब्दों से परे हो "
(`नगाड़े की तरह बजते शब्द`- पृष्ठ- ०९)
लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की काव्यभूमि पर निर्मला पुतुल की जमीन कितनी अपनी है, हम आगे खुलेंगे इस आत्मसंशय के साथ कि उस ऊसर जमीन को अगर उर्वर प्रदेश न बनाया गया होता तो कैक्टस, नागफनी और बबूल सरीखे पेड़-पौधे ही वहां अपनी जड़ें जमा पाते!
देखने वाली बात है कि एक संताल आदिवासी परिवार में जन्मी-पली पुतुल का सिर्फ़ अपनी भाषा (संताली वांडमय, द्विभाषा नहीं ) मे अब तक एक भी कविता-संग्रह नहीं आया हैं। क्षेत्र में कई संताली पत्रिकाएं परिचालन में हैं, फिर भी अनुवाद से पूर्व वह इनमें लगभग नहीं के बराबर छपी हं। हां, सामाजिक कार्यकर्त्ता होने के नाते विशेष गरज़ से रमणिका फाउंडेशन के द्वारा इनका द्विभाषिया काव्यसंकलन 'अपने घर की तलाश में ` प्रकाश में आया जिसमें प्रतिपृष्ठ दायीं ओर संताली और बायीं ओर हिन्दी में कविताएं आमने-सामने पाठकों से संवाद करते नज़र आती है जो इस बात का पुख्ता सबूत है कि पुतुल की अनुदित कविताएं ही काव्यजगत में उनकी पहचान बना पाई हैं किन्तु यक्षप्रश्न यह है कि किस भाषा-साहित्य में, हिन्दी में या संताली में या दोनों में, क्योंकि संताली भाषा के रचनाकार को हिन्दी भाषा-साहित्य के रचनाकार में ढ़ालने का जो प्रयास जाने-अनजाने जारी है, उससे अनुवाद-चिंतन की परंपरा से संबंधित कई-एक सवाल हाल के दिनों में उठ खड़े हुए हैं। समकालीन एक अन्य काव्य संग्रह 'नगाड़े की तरह बजते शब्द`, जिनमें अधिकतर कविताएं पहले संग्रह की ही हैं, भारतीय ज्ञानपीठ ने २००४ में प्रकाशित की जो चर्चित रही और २००५ के 'बेस्टसेलर पुस्तकों` की अनुक्रम में सूचीबद्ध भी हुई। दोनों ही संग्रहों में भाषा-रुपान्तर अशोक सिंह का हैं।
यहां यह बता देना समीचीन है कि संताली भाषा प्रक्षेत्र के अन्य क्षेत्रीय भाषाओं यथा, बांग्ला, भोजपुरी, उर्दू, खोरठा, नागपुरी, मैथिली की तरह संताली भाषा न तो हिन्दी वर्णमाला के समीप है और न सहज ग्राह्य। इसमें टोन, अंडरटोन, बोलने के लहजे, शब्दार्थ, ये सब बिल्कुल भिन्न हैं। अतएव जटिल भाषा-साहित्य के वाड़्मय पर पकड़ बनाकर उसकी संस्कृति या सृजन पर अनुवाद का कार्य बेहद जोखिम़ भरा होता है, इसलिए कोई करता है तो उसके शब्दकर्म को उत्साहित करना चाहिए। पर दु:खद है कि भारतीय ज्ञानपीठ से छपे इस संग्रह के आवरणपृष्ठ पर अंकित कवि अरुणकमल के वक्तव्य को यदि हटा दिया जाए यह बताना मुश्किल हो जायगा कि रचना किस भाषा से अनुदित है। रुपान्तर का नाम भी छोटे अक्षरों में अंकित है सिवाय इसके, अनुवादक के लिए एक वाक्य, एक शब्द, एक अक्षर.. तक नहीं लिखा गया है, संग्रह के आमुख पृष्ठ पर रुपान्तरकार की अभिव्यक्ति की जरुरत भी नहीं समझी गई।
सभी स्वीकारते हैं कि परायी या इतर संस्कृति और दुरुह भाषा-साहित्य से संबंधित सृजन का अनुवाद मौलिक लेखन से भी कठिन होता है। इस संदर्भ में मूलरचना को अनुवाद के माध्यम से अशोक सिंह ने अपनी भाषा में उतना ही सहज और भावप्रवण बनाकर प्रस्तुत करने का जो अपरिमित कौशल, अभ्यास, अध्ययन और लेखन क्षमता का परिचय दिया है ( कि मूल रचना भी अनुवाद के सामने निष्प्रभ मालुम पड़ती है) उस पर प्रकाशक और (पत्रिकाओं में) संपादकों द्वारा नि:शब्द रहना कहां तक न्यायसंगत प्रतीत होता है ? क्योंकि सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद पुन:-सृजन की प्रक्रिया है जो मूल लेखन से किसी भी दृष्टि सेे न तो घटिया है और न कम महत्वपूर्ण। इस दृष्टि से हिन्दी अनुवाद-चिंतन परंपरा के एक मुख्य आधारस्तंभ हरिवंश राय बच्चन का मत ध्यातव्य है। उनका मत है कि "स्तरीय अनुवादों से सृजनशील साहित्य निश्चित रुप से प्रभावित होता है। इसलिए अनुवाद की चरम सफलता यही मानी गयी है कि वह अनुवाद न होकर जिस अनुपात में मौलिक प्रतीत हो, उसी अनुपात में इसे सफल माना जा सकता है।" मौलिक सृजन की तुलना में अनुवाद की स्थिति के विषय में उनका कहना है कि "मैं अनुवाद को, यदि मौलिक प्रेरणाओं से एकात्म होकर किया गया हो, मौलिक सृजन से कम महत्व नहीं देता। अनुभवी ही जान सकेंगे कि प्राय: यह मौलिक सृजन से अधिक कठिन होता है।"
लेकिन बाजारवाद के इस युग में साहित्य में "मार्केटिंग" का जो प्रभाव देखा जा रहा है उससे हिन्दी अनुवादक किस हद तक पीड़ित है और इसके क्या सांस्कृतिक-साहित्यिक फलाफल होंगे, इसको देखना-गुनना ही इस आलेख का वर्ण्य-विषय हैं क्योंकि बदलते परिवेश में, जहां सृजन की गुणवत्ता बाजार के द्वारा निर्धारित हो रही है, लोककला, लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य और लोकचेतना को महज बाजार की वस्तु बन जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। बाजार में वस्तु प्रधान होता ह, उसका निर्माता या वस्तुविद् नहीं क्योंकि उसकी मूल्यवत्ता उसके अर्थसत्ता से संचालित होती है। इस कारण साहित्य में अनुवादक के 'लोकेशन` से "मार्केंटिंग को परहेज होता है क्योंकि इससे उसे एक धक्का-सा लगता है और सृजन को मूल रुप में प्रेषित करने की वंचना में अवरोध पैदा होता है। लेकिन क्रेता-पाठक इस चकमेबाजी से बच जाते हैं। मुगालते में उनकी जेबें भी कटने से बच जाती है।
निर्मला पुतुल की कविताओं के संदर्भ हमें नहीं भुलना चाहिए कि उनके अपने क्षेत्र संताल परगना और उससे बाहर दिल्ली तक उनकी जो साहित्यिक छवि बन रही है, वह कविताओं की अनुदित प्रतिलिपियों के प्रकाशन के बाद, उससे पहले नहीं।
खेद है कि समकालीन हिन्दी अनुवादकों को हाशिये पर धकलने में जितना बाजार दोषी है, उससे कम दोषी हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं नहीं हैं। कुछ सचेत पत्रिकाओं को छोड़कर अन्य के संपादकों-संयोजकों का ध्यान इस ओर नहीं हैं। उनकी अन्यमनस्कता के कारण अन्य भारतीय भाषाओं में सृजन के हिन्दी अनुवाद को अपूरणीय क्षति हो सकती है।
चूंकि निर्मला पुतुल की काव्यवस्तु ने मेरे मन को मोहा है और ये भीतर तक मुझे आलोड़ती भी है, इसलिए मैं इनकी अनुदित कविताओं का अरसे से एक सजग पाठक रहा हूँ। लेकिन साथ ही साथ अनुवादक के साथ हो रही वंचना और उपेक्षा भी मुझे कहीं न कहीं हमेशा सालती रही है। स्वसंग्रहित विविध पत्रिकाओं से नीचे कुछ हिन्दी पत्रिकाओं के नाम अंकित है, अंक-संख्या, पृष्ठ-संख्या के साथ, जहां संताली कविताएं अनुदित होकर प्रमुखता से छपी, पर इनमें न तो अनुवादक का नाम अंकित किया गया, न कविता के संताली से अनुदित होने का ही कोई प्रमाण मिलता है। अनजान पाठकों को तो हमेशा भरम रहेगा कि रचनाएं सीधे हिन्दी की है, और ऐसा हुआ भी हैं।
१. "अद्यतन", अनियतकालीन (सीवान) - अंक- ११/सितम्बर २००२. चार कविताएं प्रकाशित - मैं वो नहीं हूँ, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए, अपनी जमीन तलाशती स्त्री, अपने घर की तलाश में ।
२. "अपेक्षा" (त्रैमासिक) अंक १२/जुलाई- सितम्बर २००२/पृष्ठ सं- ५६. छ:कविताएं।
३. प्रभात खबर दीपावली विशेषांक २००५/पृष्ठ सं- १३८ । दो कविताएं - बाहामुनी और अहसास होने से पहले।
४. हंस, मई २००५/पृष्ठ सं- ५० पर/तीन कविताएं मूलत: हिन्दी में छपी।
५. इरावती अंक- २/अक्टूबर- दिसम्बर २००५। पृष्ठ सं- ४५ पर ५ कविताएं छपीं जिसमें दो संताली की है पर अनुदित होने का कोई जिक्र नहीं।
६. अस्मिता (पटना) अंक०१/२००५ पृष्ठ सं- ५९ पर
७. हंस ( मासिक)- संभवत: २००४ के मध्य के किसी अंक में निर्मला पुतुल की संताली कविताएं- `धर्म के ठेकेदारों की ठेकेदारी` और 'मेरा सब कुछ अप्रिय है`, हिन्दी की मूल रचना के रुप में छापी गई।
८. समकालीन जनमत/पटना/सितम्बर २००३। आदिवासी विशेषांक पृष्ठ सं- १०२ पर तीन कविताएं।
९. कांची, रांची :- जनवरी २००२ अंक में पृष्ठ सं- ४३ पर दो कविताएं।
१०. देशज अधिकार- फरवरी २००६/पिछले आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित कविता "एक खुला पत्र अपने झारखंडी भाईयों के नाम।"
११. युद्धरत आदमी : अखिल भारतीय आदिवासी विशेषांक के पृष्ठ सं-१३७ पर संताली हिन्दी कविताएं आमने-सामने, लेकिन अनुवादक का नाम नहीं।
१२. बिहार विधान परिषद से प्रकाशित पत्रिका "साक्ष्य" अंक-१०/सितम्बर २००० में पृष्ठ सं-१९० पर तीन कविताएं।
उपर्युक्त के अतिरिक्त गद्य अनुवाद का भी यही हाल है ! जरा नज़र डालिये-
१. 'कांची` (रांची) अंक अक्टूबर २००३ कहानी विशेषांक कहानी के मूलत: संताली होने का कोई संकेत नहीं। रुपान्तरकार का नाम नहीं।
२. 'युद्यरत आदमी`, आदिवासी स्वर और नई शताब्दी खंड-२ (पृष्ठ सं-३३९) पर अंकित संताली आलेख जब पटना से निकलने वाली पत्रिका 'आधी दुनिया आधी जमीन` में प्रकाशित हुई तो वह मूल हिन्दी आलेख बन गया।
अनुदित रचनाओं से भाषान्तरण पर भी एक दृष्टि :
अनुवाद-चिंतन परंपरा के परिपक्व लेखक यदि मूल रचना से अनुदित सृजन को लेकर भाषान्तर का कार्य करते हैं तो यह अंकित करना नहीं भूलते हैं कि उनके इस पुनर्सृजन का आधार क्या है। निर्मला पुतुल की हिन्दी में अनुदित कविताओं के आधार पर अंग्रेजी, मराठी, उड़िया, उर्दु आदि भाषाओं में अनुवाद का उपक्रम जारी है।किन्तुएकमात्र मराठी अनुवादक पृथ्वीराज तौर ने ही उल्लेख किया है कि 'यह रचना अमूक अनुवाद पर आधृत है।` मैं शेष भाषान्तरकारों से एक विनम्र सवाल पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्होंने उनकी मूल रचना (जो संताली में है) से ही यह सुकार्य किया है अथवा अनुलेखन का आधार अशोक सिंह द्वारा अनुदित हिन्दी रचनाही रही है ? क्या उनको संताली भाषा-संस्कृति का बोध है ? यही नहीं, पुतुल की दोनों हिन्दी अनुदित संग्रह (अपने घर की तलाश में और नगाड़े की तरह बजते शब्द) पर काफी समीक्षाएं छपी हैं दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में, पर किसी ने अनुवादक के कार्य को रेखांकित नहीं किया। कितनों ने तो नाम तक का जिक्र तक नहीं किया। यह सैकड़ों वर्ष पुरानी विरासत में मिली अनुवाद-साहित्य परंपरा के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। इसलिए अनुवाद-चिंतन एवं साहित्य के अस्तित्व पर अब एक केन्द्रीय बहस की आवश्यकता है। यदि भाषान्तरकारों को उनके कार्यफल के रुप में सिर्फ गुमनामी और उपेक्षाएं मिलती रही तो हिन्दी भाषा साहित्य के विशाल हृदय-प्रदेश में जहां अनेकानेक देशी-विदेशी भाषा साहित्यों के सृजन के फूल अनुदित होकर विकसित होते है, मुरझाने लगेंगे। अन्य भाषाओं की प्रतिभाएं हिन्दी लेखकों के साथ इतनी गड्डमड्ड हो जायेंगी कि हिन्दी के मूल लेखक की मौलिकता एवं पहचान भी एक हद तक प्रभावित हो जायेगी। प्रकाशकों का क्या कहना, उनकी तो सिर्फ चांदी कटनी चाहिए। किन्तु भाषान्तर की स्वस्थ परंपरा कायम रखने के लिए प्रकाशक को इस विषय पर ईमानदार होना पडेग़ा। यह तभी संभव है जब संपादन निष्पक्ष और सावधानीपूर्वक हो और समीक्षक विषयांकित विन्दु पर सचेत हों। उनके द्वारा मूल रचना के अनुलेखन कला शिल्प के गुण-दोष की विवेचना भी मूल रचना के साथ ही अवश्य की जाय ताकि अनुवादक भी समालोचना की परिधि में आ सकें। इस क्रियाशीलन को पुन: जागृत करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है जो हमारी चिरकालीन परंपरा भी रही है किन्तु अब अवमाननाग्रस्त हो चली है।
एक संताली रचनाकार को हिन्दी भाषा साहित्य के मूल लेखक के रुप में जिस तरह से आगे खड़ी करने की जो प्रकिया अपनायी गई है उसकी आलोचना इस भय के कारण भी आवश्यक है कि इस परंपरा का कहीं सामान्यीकरण न होता चला जाय। मुझे हैरत होती है कि हिन्दी साहित्य के क्षेत्र का एक बहुचर्चित सम्मान "बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान" वर्ष २००४ के लिए निर्मला पुतुल का चयन किया गया है जो उनकी अनुदित कृति 'नगाड़े की तरह बजते शब्द` जिनके अनुवादक अशोक सिंह है, के लिए देने की घोषणा की गई है। यह भी कि, सम्मान समिति के निणार्यक मंडल में हिन्दी के एक वरिष्ठ समालोचक एवं एक वरिष्ठ कथाकार के अतिरिक्त तीन विज्ञ साहित्य-सेवी भी है किन्तु इस बात से अब तक बेखबर है कि पुतुल हिन्दी की नहीं, संताली मूल की कवयित्री हैं और उनकी मूल रचना संताली में ही है। (अगर संताली भाषा में उत्कृष्ट शब्दकर्म पर यह सम्मान देने का निर्णय आता तो बात और थी) क्योंकि सर्वविदित है कि यह सम्मान हिन्दी कवि और हिन्दी कथाकार को उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए अब तक दिये जाने की परंपरा रही है। पूर्व के सम्मान संबंधी स्थापित प्रतिमानों को यहां खारिज करते हुए इस निर्णय ने जहां एक ओर हिन्दी-अनुवाद-साहित्य के लिए खतरे की घंटी बजा दी है, वहीं दूसरी ओर इतरभाषी रचनाकार हिन्दी रचनाकार के रुप में प्रतिस्थापित कर देने से हिन्दी के समानधर्मा कवियों को अपनी मौलिकता की पहचान एवं अस्तित्व पर एक बार नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है।
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं किसी एंगिल से पुतुल की कविताओं के मेरिट में जा रहा हूँ। उनका काव्यवस्तु और काव्यविवेक यहां आलोचना का विषय नहीं है। उनकी रचनाओं के पार्श्व में जो कुछ है उसे यहां रखने का प्रयोजन मात्र इतना ही है कि मूल रचनाकार के साथ-साथ अनुवादक की हित-चिंता से भी हिन्दी साहित्य का अविच्छिन्न सरोकार होना चाहिए।
प्रस्तुत लेख में एक अनुवादक और एक ही मूल लेखक के मुद्दे उठाये गये हैं। और दोनों समकालीन हैं, समस्थानिक भी। दुमका में जन्में, पले। वयस् में क्रमश: एक वर्ष आगे-पीछे। दोनों सहकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता भी। पिछले बारह वर्षो से दोनों एक साथ विविध जन-जातीय विषयों पर शोध कार्य भी करते रहे हैं।
निर्मला पुतुल की अनुदित कविताओं की भांति अनुवादक अशोक सिंह की अपनी कविताएं भी वागर्थ, वसुधा, कथादेश, काव्यम्, साहित्य अमृत, सृजन पथ, अक्षरा, साक्षात्कार, इंद्रप्रस्थ भारती, समकालीन भारतीय साहित्य जैसे चालीसों विशिष्ट हिन्दी पत्रिकाओं में छपती रही हैं। इसके अतिरिक्त संताली जीवन एवं संस्कृति पर उनका शोध विषयक आलेख भी 'संवेद` जैसी पत्रिका एवं हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर जैसे अखबारों के पन्नों पर दर्ज होते रहे हैं। फर्क़ सिर्फ यह है कि अशोक सिंह हिन्दी से हैं, निर्मला पुतुल संताली से। पुनश्च, हिन्दी में अपनी जमीन तलाशती पुतुल को भाषा पर पकड़ बनाने में अभी कुछ वक्त लगने की संभावना है क्योंकि 'नया ज्ञानोदय`, अंक अक्टूबर २००५ और 'समकालीन भारतीय साहित्य`, (अंक १२५/मई-़जून २००६) में हाल में पुतुल की स्वयं के द्वारा अनुदित हिन्दी कविताएं `पहाड़ी यौवना` `देवदार` 'मां`, 'औरत`, इत्यादि में प्रारंभिक भाषाई कमजोरियां ही उजागर होती है। यहां एक अहम् सवाल है कि अगर उनकी हिन्दी सशक्त और पकी हुई होती तो उन्हें अनुवादक के वैशाखी की आवश्यकता क्यों पड़ती ? पूर्व की अनुदित रचनाओं की तुलना में यहां भाषा की बुनावट में एक कृत्रिमता सी आ गई है जिसमें भाषा का परायापन हावी है और आदिवासियत का अभाव भी एक अंश तक खटकता है। 'नया ज्ञानोदय' के युवा पीढी विशेषांक,मई ०७ में पुतुल की प्रकाशित कविताएं देखकर तो मन ग्लानि से भर उठता है ।
उपर्युक्त सभी विचार-विथियों के समर्थन में मै यहां उधृत करना चाहता हूँ कि १९८८ में पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की हत्या के उपरांत उनकी कविताओं का हिन्दी रुपान्तर संकलन की प्रस्तावना तैयार करते हुए नामवर सिंह जी ने अनुवादक के प्रति अपने आभार के ये वाक्य लिखे थे जो अनुकरणीय एवं श्लाध्य है- "पाश की कविता में यह ताकत है जो अनुवाद में भी इतना असर रखती है। ..... हमें तो चमनलाल का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अनुवाद को संवारने-निखारने का धीरज छोड़कर जल्द से जल्द पाश की कविताओं के अधिकांश को हिन्दी में सुलभ करा दिया। आशा की जानी चाहिए कि इस दिशा में वे भी सक्रिय होंगे जो कवि हैं - पाश के समानधर्मां हिन्दी कवि।"
क्योंकि अनुवादक तो फिर भी आदमी है, अगर पेड़ की भी उपेक्षा की जाती है तो पेड़ भी दु:खी होता है -
पेड़ों को दु:ख है कि
उस कवि ने भी कभी अपनी कविताओं में
उसका जिक्र नहीं किया
जो रोज उसकी छाया में बैठ
लिखता रहा देश-दुनियां पर कविताएं।
--सुशील कुमार/हंसनिवास/कालीमंडा/हरनाकुडीरोड/पुराना दुमका/दुमका/झारखंड-८१४१०१
अनुवादक को लेकर यहां जो मुद्दे उठाए गए हॆं वे बहुत ही जरूरी, महत्त्वपूर्ण ऒर चिन्तनीय हॆं।--दिविक रमेश, 9910177099
जवाब देंहटाएंदरअसल यह निर्मला पुतुल एवं उनकी संथाली कविताओं के हिंदी अनुवाद को हिंदी की तरह पेश करने वालों का अक्षम्य अपराध है।
जवाब देंहटाएंनिर्मला पुत्तुल को हिंदी कविता के लिए दिए गये सम्मान को उनसे वापस लिया जाना चाहिए।
और, इन सारे मामलों में बिना किसी नानुकूर के अनैतिक एवं गैर हकदार होकर भी लाभ लेने के लिए आपराधिक मामला एवं बहिष्कार का मामला बनता था। पुतुल एक चीटर एवं नैतिक स्खलन वाली ठहरती हैं।सेलै
आपने जो मुद्दे उठाए हैं वे पूरी तरह से सही हैं ,|अनुवादक को भी इसमें शामिल करना कवयित्री और प्रकाशक --सम्पादक की नैतिक जिम्मेदारी बनती है |अशोक सिंह भी उस सम्मान के हक़दार हैं जो निर्मला पुतुल को मिलता रहा है |
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