बुधवार, 14 मई 2014

शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी के बदलते स्वरूप


  • जो यह नहीं समझ पाते कि शिक्षा का सवाल जितना मानव की मुक्ति से संबद्ध है उतना किसी अन्य विषय या विचार से नहीं, वह पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन के विचार-दर्शन को सही अर्थ में नहीं जानते। एक बार उन्होंने ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविधायालय मे भाषण देते हुए कहा था कि मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। पर जब मुक्ति का अर्थ ही बेमानी हो जाय, उसका लक्ष्य ‘सर्वजन हिताय’ की परिधि से हटकर घोर व्यैक्तिक दायरे में सिमट जाय तो मानव-मन ‘स्व’ के निहितार्थ ही क्रियाशील हो उठता है और समाज में करुणा की जगह क्रूरता, सहयोग की जगह दूराव, प्रेम की जगह राग-द्वेष जनिता हिंसा और प्रतियोगिता की भावना का बीज-वपन होने लगता है।
  • इसे मैं एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूंगा। आतंकवादी-शिविरों में जहाँ बेकसूर आदमी को मारने का प्रशिक्षण दिया जाता है, क्या उसे आप शिक्षा कहेंगे ? पर वही प्रशिक्षण जब सैन्य-शिविरों में सैनिकों को दी जाती है तो उसका उद्देश्य राष्ट्र के निहितार्थ होता है और वह क्रियाशीलन तब शिक्षा के आयाम से जुड़ जाता है। इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का तीव्रतर ह्रास होता जा रहा है, समाज में सहिष्णुता की भावना लगातार कमतर पड़ती जा रही है और गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है, डा. राधाकृष्णन का पुण्य स्मरण फिर एक नई चेतना पैदा कर सकता है। वे शिक्षा में मानव के मुक्ति के पक्षधर थे। वे कहा करते थे कि मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं।
  • पर सोवियत-संघ के प्रशासनिक विघटन के बाद बाज़ार और पूंजी का वर्चस्व जिस तरह समाज में बढा है (हालाकि पहले से ही यह कमोवेश है) और मानव-श्रम की जिस तरह निरन्तर अवहेलना जारी है कि ऐसे समय में दी जा रही शिक्षा ने शिक्षक और शिक्षार्थी, दोनों को पूँजी और बाज़ार का पिछलग्गू और उसका हिमायती बना दिया है। शिक्षा की दिशा में हमारा सोच अब इतना व्यावसायिक और संकीर्ण हो गया है कि हम सिर्फ़ उसी शिक्षा की मूल्यवत्ता पर भरोसा करते हैं और महत्व देते हैं जो हमारे सुख-सुविधा का साधन जुटाने में हमारी मदद कर सके, बाकी चिंतन को हम ताक पर रखकर चलने लगें है।
  • पर इसका परिणाम भी अब सामने आने लगा है। जैसे-जैसे समय बीतेगा, यह और भी प्रमुखता से गोचर होगा। एक तरफ़ तो हम नई शिक्षा के नाम पर अपनी परम्पराओं में जो कुछ‘ सु’ है उसका बलि चढा रहे हैं दूसरी ओर हमने अपने जीवन को इतना त्रासद और जटिल बना रखा है कि अब हम भी पश्चिमी देशों के लोगों की तरह मानसिक रोग से ज्यादा पीड़ीत होने लगे हैं। राधाकृषणन जी शिक्षा में तकनीकी और विज्ञान के विरोधी नहीं थे पर संस्कार-विहीन मानवीय गुणरहित शिक्षा जहाँ मात्र मस्तिष्क का अपूर्व विकास हो पर हृदय भोथा ही रहे, ऐसी शिक्षा के वे कभी पक्षधर नही हुए। भला ऐसी शिक्षा किस काम की ? अगर आपका वैज्ञानिक बेटा आपके गंभीर रूप से बीमार हो जाने पर सिर्फ़ आपके लिये चिकित्सक की व्यवस्था करके ड्य़ुटी बजाने चल दे तो आपको कैसा लगेगा? हालाकि आपका बेटा कोई चिकित्सक नहीं, पर आप यदि उसके प्यार की भूख से बीमार हो रहे हैं तब क्या उपाय होगा? तपती धरती पर आकाश में जलभरा मेघ वैज्ञानिकों के लिये सिर्फ़ हाईड्रोजन और ऑक्सीजन का मिश्रण हो सकता है पर आपके हृदय के लिये जो सबमें है, क्या सोचते हैं उस मेघ को देखकर?... पर समाज में आज असहिष्णुता के हजारों लक्षण देखे-महसूस किये जा रहे हैं।
  • बनाने वाले ने मानव-मन के साथ मानव का हृदय भी बनाया और उसमें एक प्यास भी डाल दी है। उसकी भी एक बेआवाज़ पुकार है। अगर हमारी शिक्षा उस पुकार की अनसुनी करता रहेगा तो यह दुनिया फिर सुख-आनंद से रहने के लायक नहीं रह जायेगी।
  • आज हम पूंजी और पश्चिम के मायालोक में अपनी चीज़ों को, अपनी ज़मीन को जिस तरह लगातार भूल रहे हैं , हमारा हृदय दिन-दिन जितना निष्ठूर होता जा रहा है, हम अपने पहनावे-ओढ़ावे, खान-पान, रुचियाँ, संगीत और आदतों को जिस तरह रोज़ बाजार के हवाले कर रहे हैं कि हमारे अंतर्तम में अशांति और बेचैनी अब पहले ज्यादा बढ़ने लगी है। यह तो अनुभव करने की बात है, बहस की नहीं। अतएव हमें शिक्षा के आयामों में भौतिक उन्नति के साथ-साथ आत्मिक उन्नति के विषय को भी जोड़ना होगा, बल्कि जुटा तो पहले से ही है, उसके क्षरण और भूलने की प्रवृति पर लगाम कसनी होगी वर्ना हम एक गुलामी से निकलकर दूसरी गुलामी का सफ़र तय कर रहे हैं जहाँ रावण की लंका सी समृद्धि तो होगी पर उसी सा कलह और अमानवीय वातावरण भी होगा। तभी तो ऐसे कठिन समय में डॉक्टर राधाकृष्णन के विचार-विथियों की महती आवश्यकता महसूस की जा रही है जो अपनी भारतीयता के सुदीर्घ परम्परा का मूल उत्स भी है।
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