1.
तथाकथित अति सभ्य और संवेदनशील समाज में
सब ओऱ दीवारें चुन दी गई हैं
और हर दीवार के अपने दायरे बनाए गए हैं
इन दायरों -दरो -दीवारों को फाँद कर
हवा तक को बहने की इजाज़त नहीं
2.
खिड़कियाँ खोलने पर यहाँ कड़ी बन्दिशें हैं
क्योंकि अनगिनत बोली, भाषा और सुविधाओं के रंग में रंगे
उन संवेदनाओं और सभ्यताओं के कई प्रच्छन्न रूप हैं
उन संवेदनाओं और सभ्यताओं के कई प्रच्छन्न रूप हैं
कई-कई भंगिमाओं में,
नवयुग की आधुनिकता से उपजी
नव-विकसित शब्दावलियों के संज्ञा , विशेषण और क्रियाओं से बने हुए
3.
पर तुम मानों या न मानों,
इस दीवार के सामने एक खिड़की खुलती है
उनकी भाषा, सभ्यता और रंग के खिलाफ़
4.
- हाँ, और इसी खिड़की से एक कविता
प्रवेश करती है निर्बाध मुझमें
फिर दुनिया की उन सारी सभ्य दीवारों से टकराती हैं
जिसकी प्रतिश्रुति फ़िर एक नई कविता के लिए
मुझे तैयार करती है |
सुशील कुमार जी, मुझे आपकी वेबसाइट बहुत पसंद आई और सामग्री चयन भी अद्भुत है. आपकी मेहनत सफल है. मैं धीरे-धीरे तमाम सामग्री पढ़ रहा हूँ और ये किसी पत्रिका से गुजरने जैसा है...
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