रविवार, 28 दिसंबर 2014

प्रतिशब्द

बाज़ार जब आदमी का 
आदमीनामा तय कर रहा हो 



जब धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँखें 
एक सही और सार्थक जनतंत्र की प्रतीक्षा में 
पथरा गई हों 
सभ्यता और उन्नति की आड़ में 
जब मानुष को मारने की कला ही 
जीवित रही  हो
और विकसित हुई हो  धरती पर 

जब कविता  भी 
एक गँवार गड़ेडिया के कंठ से  निकलकर
पढे-लिखे चालाक आदमी के साथ 
अपने मतलब के शहर चली गई हो  
और शोहरत बटोर रही हो  
तब  क्या  बचा  एक कवि  के लिए   ?

टटोल रहा हूँ  
अपने  अंदर  प्रतिशब्दों  को  -
तमाम  खालीपन के बीच 
गूँथ रहा हूँ उनको एक -एक कर 
फिर करुणा और क्रोध की तनी डोरी से 
उन कला-पारंगतों और उनके तंत्र के विरोध में 
जिसने धरती का सब सोना लूट लिया  |
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