[ प्रखर युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार तीसरी शीघ्र प्रकाश्य आलोचना -पुस्तक "समय के बीजशब्द" का यह एक अध्याय है ]
लोकधर्मी कविता का अन्तिम निकष लोक है
क्योंकि रचनाकार की रचनात्मक शक्ति का सघन सम्बन्ध लोक के जीवन संघर्षों और मूल्यों से होता है ।
यह कहना गलत नहीं होगा कि लोक भूमि मे सामान्य जन की प्रधानता होती है वह शक्ति
सत्ता और सम्पत्ति से प्रभावित होते हुए भी भागीदारी से वंचित होता है । यह वंचना
गरीबी , अशिक्षा , त्रासदी, रोगशोक, आफत का कारण विनिर्मित करती है , कवि इस
प्रक्रिया के ऐतिहासिक सन्दर्भों को भली प्रकार समझता है अस्तु वह तमाम वंचनाओं के
कारणों का विश्लेषण करते हुए लोक के लिए मुफीद संस्कृति का गढन करता है । वह लोक
से जुडता है अनुभव ग्रहण करता है व अनुभवों को ज्ञानात्मक संवेदना में तब्दील कर
लोक जीवन की छवियों को मुकम्मल वैचारिक आधार प्रदत्त करता है । इसके लिए कवि तमाम
उपकरणों का प्रयोग करता है । वह इतिहास की भी पडताल करता है और इतिहास को नया अर्थ
देता है वह लोक मे सदियों से व्याप्त सौन्दर्य बोध को नया आधार देता है । विश्वासों
, मिथकों , कल्पनाओं , किंववदन्तियों का
नवीनीकरण करके युग के मूल्यों का नया विज़न तय करता है । लोकधर्मी कवि जब
पुरातन अर्थों से टकराता है तो वह अकेले नहीं होता उसकी अनुभूतियाँ अकेली नही होती
है वह तमाम उपकरणों से पुरगतन सन्दर्भों को खंडित करता है । उपकरण नये भी हो सकते
हैं परम्परागत भी हो सकते हैं । नये उपकरणों मे चरित्र महत्वपूर्ण है और पुरातन
उपकरणों में "मिथक , फैन्टेसी , प्रतीकात्मकता , पौराणिकता आदि की उपजीव्यता महत्वपूर्ण हैं जिनका उपयोग नई अर्थच्छवियों के
साथ सर्वदा से होता आया है । निराला की राम की शक्ति पूजा , नरेश मेहता की सशंय की एक रात , कुँवर नारायण की
आत्मजयी , धर्मवीर भारती का अन्धा युग , कनुप्रिया , दिनकर का उर्वसी आदि रचनाएं इसके उदाहरण हैं जिनमे पौरणिकता व मिथकों के साथ कवियों का युगबोध भी सांकेतित है । कविता में मिथकों का प्रयोग
नया नहीं है मिथक एक ऐसी अवधारणा है जिसमे लोगों का विश्वास होता है एवं उसके
सम्बन्ध में पूर्वधारणाएं तय होती हैं ।
इनके सम्बन्ध मे विश्वास और पूर्वधारणाएं लोक मे गहरे तक बैठी होती हैं जिसके कारण
ये सम्प्रेषण के लिए बहुत आसान होते हैं | यही कारण है इनका उपयोग कविता मे खूब
हुआ है । मिथक केवल चरित्र नहीं होते धारणा और विश्वास भी हो सकते हैं । इनका धर्म
और लोककथाओं से भी सम्बन्ध हो सकता है मिथक और साहित्य मे यही अन्तर है कि मिथक
आदिम विश्वास है और साहित्य जन का यथार्थ है जब लेखक आदिम विश्वासों और अवधारणाओं
को जन यथार्थ का स्वरूप देता है तब ऐसी रचना को मिथकीय कहा जाता है । चूंकि
साहित्य लोकजीवन से जुडा होता है इसलिए मिथकों के विश्लेषण उनके औचित्य और
मनोविज्ञान पर चर्चा होना स्वाभाविक है कवि आधुनिक अर्थ सन्दर्भों व जनहितकारी
मुद्दों कों लक्ष्य करके जब किसी पुरातन संरचना को नयी भाषा व नये तर्क से युक्त
कर नया अर्थ देता है यह कार्य परम्परा और आधुनिकता का बेहतरीन समन्वय होता है ।
मिथक मे आधुनिकता देना बेहद जरूरी है अन्यथा मिथक की प्रवृत्तियाँ सामन्ती भी होती
हैं यदि उन्हे हूबहू कविता या किसी रचना मे विश्लेषित किया जाता है तो साहित्य
अपने लक्ष्य से भटककर प्रतिक्रियावाद का पोषक बन जाता है । प्रतिक्रियावादी लेखन न
केवल जन का अहित करता है वरन जनचेना का विनाश कर सत्ता और शक्ति के फासीवादी इरादों
का पोषक बन जाता है । इसलिए मिथकीय रचना
में वैचारिकता व ऐतिहासिक समझ की बेहद जरूरत होती है मिथकों को विश्लेषित करने के
लिए डायलैक्टिक मैटेरियालिज्म ही सबसे उपयुक्त और वैज्ञानिक पद्धति है । यदि
नजरिया वैज्ञानिक नही है तो हजारों ग्रन्थ पौराणिक विषयों को लेकर लिखे गये हैं वो
सब साहित्य क्यों नहीं बन सके हैं ? सत्यनारायन कथा , ब्रत कथाएं साहित्य इसलिए नहीं हो सकती है क्योंकी उनका प्रतिपाद्य जन नही है
अभिजन है । अभिजन की मान्यताएं और विश्वास उनका ध्येय है । मिथक का प्रयोग केवल
वैज्ञानिक पद्धति से ही सम्भव है साथ ही उसकी अर्थवत्ता भी आधुनिक जन मूल्यों के
अनुकूल होनी चाहिए । इधर मिथक और अवधारणाओं को लेकर कुछ कविताएं लिखी गयीं और वो
चर्चित रहीं है अवधारणा को मिथक या फैन्टेसी का रूप देना एक बेहतरीन कला है यह
कार्य दुष्कर है । केवल वही कवि ऐसा कर सकता है जो लोकजीवन की गहराई व उनके
विश्वासों से भली प्रकार परिचित हो सत्ता और पूँजी के पारस्परिक सम्बन्धों की
वैज्ञानिक समझ हो ऐसा कार्य महानगरीय कवि नहीं कर सकते हैं क्योंकी उनके पास मिथक
की भाषा नही होती मिथक का सन्दर्भ व उसकी जन प्रियता नही होती | उनकी भाषा काव्य
परम्परा से अर्जित पेशेवर अर्थों की भाषा होती है । पेशेवर भाषा प्रयोग करने वाला
कवि अपनी भाषा को मिथक की भाषा में रूपान्तरण नहीं कर सकता
है । मिथक ऐतिहासिक भौगौलिक समरूपता से युक्त भाषा की संरचना होते हैं । इधर दो
चार वर्षों में एतिहासिकता मिथक व फैन्टेसी को लेकर लिखी
गयी रचनाओं में बुद्धिलाल पाल का कविता संग्रह “राजा की दुनियाँ "
शरद कोकास की लम्बी
कविता "पुरातत्ववेत्ता" एवं राजकिशोर राजन का कविता संग्रह "कुशीनारा से गुज़रते" बेहद जरूरी कविताएं
हैं । मै कविता संग्रहों को कविता इसलिए कह रहा हूं क्योंकी इनमे चरित्र का
सन्निवेश है । एक ही चरित्र को वैविध्यपूर्ण अवस्थितियों में चित्रित किया गया है
। जैसे राजा की दुनियाँ में राजा और उसकी सत्ता के इर्द गिर्द समूचा संग्रह काम कर
रहा है किसी एक या दो कविताओं मे आप राजा की दुनिया और उसके तन्त्र का अनुमान नही
कर सकते हैं न ही एक या दो कविताओं से राजा का चरित्र स्पष्ट हो सकता है । हर एक
कविता उसके व्यक्तित्व के अलग अलग पहलू को दिखाती है और सारी कविताएं मिलकर राजा
की दुनिया का भयावह परिदृष्य उकेर रही है । इसलिए वह कविता संग्रह न होकर एक लम्बी
कविता है । इसी तरह राजकिशोर राजन का 'कुशीनारा से गुज़रते' वर्ष 2015 में प्रकाशित ऐतिहासिक , मिथकीय व अवधारणा मूलक कविता संग्रह है इसे भी एक लम्बी कविता कहा जा सकता है
। बस क्षण भर के लिए , नूरानी बाग , ढील हेरती लडकी , के बाद "कुशीनारा से गुजरते" जैसा प्रयोगधर्मी कविता संग्रह लिखना कवि के लिए जोखिम भरा काम था पहले के सभी
कविता संग्रह लोक धर्मी एवं जनपक्षीय हैं विषय भी आम जनजीवन से जुडा हुआ लेखकीय
व्यक्तित्व का परिचायक है ।
लेकिन यह तीसरा संग्रह विषय पृथक व भाषा के सम्बन्ध में लेखकीय बौद्धिकता प्रयोगधर्मिता इतिहासबोध , का परिचायक है । इस कविता संग्रह मे कुल 61 कविताएं हैं जो “कला
और बुद्ध” से लेकर “उदास मित्र के लिए” शीर्षकों मे विभक्त हैं । कथानक मिथकीय और
ऐतिहासिक है भाषा भी भूगोल व देश काल का अनुसरण करती है | कवि ने बोलचाल से रहित
बौद्धकालीन भाषा व बौद्ध दर्शन के गूढ व्यजंना वाले शब्दों का भी प्रयोग किया है
ऐसा केवल कविता की ऐतिहासिकता व मिथकीयता को बचाने के लिए है । जैसा कि मैने कहा
है कि मिथक पर कविता लिखना सबसे कठिन है यह जोखिम भरा काम है क्योंकी भाषा और
देशकाल की संगति का निर्वहन आज के कवि के लिए बेहद कठिन है साथ ही पाठक की पठनीयता
व सहजता बचाए रखने की भी समस्या बनी रहती है । यही कारण है राजकिशोर राजन ने अपनी कविताओं के बाद पाद टिप्पणी जैसा
सूत्रात्मक समाधान कर दिया है । इन पाद टिप्पणियों के कारण कविताएं दुर्गेय नहीं
रह जाती हैं । बौद्ध दर्शन के सूक्ष्म बिन्दुओं को समझने मे पाठक की सहायता करती
हैं । इस टेक्निक का प्रयोग करके कवि ने पाठक को किसी गैर सम्भावना से विरत कर
दिया है साथ ही कुशीनारा से गुजरते को जनजीवन के आग्रहों विक्षेपों इतिहासबोध , द्वन्दों दार्शनिक उलझावों का स्वानुभूत प्रतिबिम्ब बना डाला है । कविताओं मे
कथानक नहीं है पर कविताओं मे कथात्मक संगति जरूर है | हर कविता एक दूसरी कविता से अन्तर्ग्रथित
है । एक प्रकार का आद्यावत सम्बन्ध हैं जिसके कारण कोई भी कविता सूत्रात्मक
सम्बन्धों के फलक से बाहर नही जाती है । इसे कवि की कला कह सकते हैं क्योंकी
दार्शनिक अवधारणाओं पर लिखी गयी कविताओं में अन्तर्कथानक खोज लेना व उनको एक ऐसी सूत्रता में
आबद्ध कर देना जिसमे कथानक आभासी हो जाए अपने आप मे कला ही कहा जाएगा ।वैसे समूचे
कविता संग्रह मे कवि ने स्वकथन द्वारा कहीं भी कथानक को थोपा नही है चूँकि बुद्ध
के जीवन व उपदेशों से सभी परिचित हैं इसलिए कविताओं मे अन्तर्निहित मन्तव्य स्वतः
कथानक का आधार विनिर्मित कर देते हैं | दार्शनिक अवधारणाओं पर लिखी गयी कविताओं मे
कथानक का स्वतः मूर्त हो जाना बहुत कम कृतियों में पाया जाता है ऐसा उदाहरण कुँवर
नारायण की कृति आत्मजयी मे देखा जा सकता है लेकिन आत्मजयी मे कवि ने कथानक के
पर्याप्त संकेत दिए है यहाँ कवि संकेतों के सन्दर्भ मे मौन रहता है । कुशीनारा से
गुजरते की कथा सिद्धार्थ के बुद्ध मे बदलने की कथा है ।बुद्ध के जीवन प्रसंगों व
उनके सम्पर्क मे आकर बदलने वाले व्यक्तियों की कथा है । जीवन के अनुत्तरित सवालों
व मूल्यों पर प्रभावी भौतिकता के परित्याग की कथा है । भौतिकता लिप्सा की जननी है
और लिप्सा मनुष्य को युद्ध व हिंसा के लिए प्रेरित करती है । हिंसा जीवन का खंडन
है इस कृति मे हिंसा के विभिन्न रूपों का दार्शनिक प्रतिरोध है । कवि हिंसा को
मनुष्यता का सबसे बडा शत्रु मानता है ।वह समूचे संग्रह मे युद्धों शस्त्रों , हथियारों क्रोध आदि की निर्थकता सिद्ध करता है | साथ ही मानवीय मूल्यों में
व्याप्त अनास्था का आस्था द्वारा प्रतिरोध करता है | राजकिशोर राजन बुद्ध की
जीवनगाथा को जनश्रुतियों और किंववदन्तियों से अलग करके देखतें है । यह अलगाव कथानक
को आधुनिक स्वरूप देने की जरूरी प्रक्रिया है । यह संग्रह इसीलिए भी महत्वपूर्ण है कि कवि आधुनिकता बोध और परम्परा का पारस्परिक सामूहन कर देता है
परम्परा मे आधुनिकता समाहित हो जाती है और आधुनिकता में परम्परा समाहित हो जाती है
। परम्परा से निसृत आधुनिकता और आधुनिकता से निसृत परम्परा पाठक को इतिहास बोध की
गहराई तक ले जाती है । जिससे पाठक चमत्कृत हो जाता है ।इस संग्रह की आधुनिकता दो
तरीके से प्रमाणित की जा सकती है दोनो का संकेत कवि ने अपनी भूमिका मे किया है ।
यदि कविता संग्रह को भूमिका से पृथक करके पढा जाएगा तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है
इसलिए भूमिका को कविताओं की पूर्वपीठिका या एक और कविता के रूप मे स्वीकार करना
चाहिए । पहला संकेत युद्ध और हिंसा का प्रतिरोध है तो दूसरा
संकेत आधुनिक विमर्शों का आरम्भ है जो आज के साहित्यिक परिप्रेक्ष्य मे जरूरी
रचनात्मक उपागम हैं । इन दोनों की स्वीकृति ही कुशीनारा से गुजरते की आधुनिकता है
। साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी सदी उन्ननीसवीं सदी मे युद्ध वैश्विक राजनीति का सच
था । दो विश्वयुद्धों का साहित्य मे जो प्रभाव पडा उसे 1950 के बाद की कविताओं मे देखा जा सकता है | अन्धा युग युद्ध विरोधी नाट्य गीत है
अस्तित्ववाद का दर्शन द्वितीय विश्व युद्ध की ही उपज है | कीकेगार्द , हुर्सल , सात्र का समूचा दर्शन मृत्यु के इर्द
गिर्द मीमांशा करता रहता है क्योंकी युद्धों की चरम परिणिति मृत्यु है इसमे मानवता
की सामूहिक मौत होती है । मौत का भय ही था जो अज्ञेय ने "अपने अपने अजनबी" जैसी कृति लिखी ।आज बीसवीं सदी में युग
बदल गया है युद्ध का चेहरा द्वितीय किस्म की हिंसाओं में तब्दील हो गया है |
साम्राज्यवाद का दौर खत्म होकर पूँजीवादी नव उदारवाद में बदल गया है । नव उदारवाद
ने अपने आप को बचाए रखने के लिए व समूचे विश्व में यूरोपीय बाजार को प्रभावी करने
के लिए हिंसा के तमाम नकारात्मक उपकरण गढ लिए हैं जो मान्यताएं औपनिवेशिक सत्ता के
बूते भारत में जन्मी आज वही अवधारणाएं बाजारवाद के दौर मे पुनर्जीवित होकर हिंसा का कारण बन चुकी हैं । साम्प्रदायिकता , राष्टवाद , हिंसोन्माद , जातीय संघर्ष , धार्मिक भीरुता , कट्टरतावाद , आतंकवाद , असहिष्णुता आदि ऐसी ही अवधारणाएं हैं जो
आज के दौर में व्याप्त हिंसा की कारण हैं । कवि ने युग की इस हिंसा को पहचाना है ।
अवधारणा मूलक हिंसाओं से निजात पाने के लिए मिथकों की पुनर्व्याख्या बेहद जरूरी हो
जाती है | राजकिशोर राजन ने यही किया है । कवि ने बुद्ध के जीवन की पडताल करते हुए युद्ध व युग की हिंसा का बडा सटीक खंडन प्रस्तुत किया है | इस कविता संग्रह का
अभिकथन पूर्णतः मौलिक है वैज्ञानिक है इन आठ दस वर्षों मे युद्ध विरोध का कोई भी
कविता संग्रह नही प्रकाशित हुआ है यह पहला कविता संग्रह है जिसके कथ्य मे मनुष्यता
का जबर्दस्त पक्ष रखा गया है व शक्ति आश्रित सत्ता का प्रतिरोध किया गया है । युद्ध
विरोधी अवधारणा के लिए कवि ने "अहिंसा" के पुरातन भारतीय मूल्यों को स्वीकृति देता है इसके लिए वो कथानक मे आंशिक परिवर्तन भी करता है कवि
का कहना है कि बुद्ध को वैराग्य शव या दुख देखकर नही हुआ वैराग्य का कारण युद्ध थे
वह लिखते हैं " बुद्ध मृत्यु आदि अथवा भोग से ऊबकर भिक्षु
नहीं बने थे उनके समय शाक्य और कोलिय गणराज्यों के मध्य नदी जल बटवारे को लेकर
अक्सर तनातनी और युद्ध होता रहता था । सिद्धार्थ इस हिंसा के साथ मानव समाज में
व्याप्त हिंसा का सदा के लिए अंत चाहते थे" ( भूमिका पृष्ठ संख्या 9) कवि का यह कथन मानीखेज है बुद्ध के जीवन
मे आधुनिकता का सूत्र यहीं से खोजा जा सकता है । यहां दो तरह की हिंसा का उल्लेख
है पहली हिंसा दो मुल्कों का आपसी युद्ध है तो दूसरी हिंसा आमजन का आपसी संघर्ष है
।बुद्ध युद्धों का ही प्रतिरोध नहीं करते वह सभी प्रकार की हिंसाओं को समाप्त कर
संघर्षविहीन समाजिक ढाँचा निर्मित करना चाहते हैं इस बिन्दु पर आकर मार्क्स और
बुद्ध दोनो एक हो जाते हैं मार्क्स भी वर्गविहीन संघर्षविहीन समाज की परिकल्पना
करते हैं वर्गीय तौर पर विभाजित समाजों में हिंसा ही मूल लक्षण होता है यदि
वर्गविहीन समाज होगा तो हिंसा स्वतः नष्ट हो जाएगी । इस नजरिए से बुद्ध की
संकल्पना या कवि की संकल्पना का आधार बुद्ध के जीवन दर्शन द्वारा वर्गविहीन समाज की कल्पना है । इस अर्थ
में यह कृति न केवल आधुनिक है बल्कि वैज्ञानिक समाजवाद की पोषक भी है । कवि ने
बुद्ध को सांसारिक बनाया है यह नितान्त तार्किक है मार्क्स भी केवल भौतिक जगत को
स्वीकार करते थे । जैसे मार्क्स जगत मे ही परिवर्तन द्वारा सुखी आत्मनिर्भर समाजों
की सम्भावनाएं जताते थे कुशीनारा से गुजरते के बुद्ध भी जगत मे भी पूरी सम्भावनाएं
अन्वेषित करते हैं "प्रथ्वी से ऊपर नहीं / प्रथ्वी पर ही / है सम्भावना / मुक्ति आनन्द की / श्रेय और प्रेय की” ( पृष्ठ 23) जगत मे मुक्ति व श्रेय प्रेय की सम्भावना है यह बुद्ध का सर्वोत्तम ध्येय है ।
चार आर्य सत्यों और प्रतीत्यसमुत्पादवाद का अन्तिम निकष धरती के दुखों का कारण
खोजना व उन कारणों के प्राप्त हो जाने पर दुखो का अन्त करना है । यह तभी सम्भव है
जब आपसी सामाजिक राजनैतिक द्वन्द समाप्त हो जाएं , युद्ध का अस्तित्व न रहे, हिंसा का कारण और कार्य दोनो न रहें, युद्ध का प्रतिरोध अहिंसा और प्रेम की विवेचना
इस संग्रह में बार बार की गयी है। भय और
असहमति दोनो समाज की समरसता को नष्ट करते हैं | ये दोनो कारण युद्ध का मनोविज्ञान
तय करते हैं | भय हथियार शस्त्र क्रय करने
के लिए प्रेरित करता है इस संग्रह मे राजकिशोर राजन ने युद्ध का पूरा तन्त्र
उपस्थित कर दिया है "हजारों साल बाद आज भी /
भय से है /
सबसे अधिक भय / और अपने यहाँ / आदमी को / आदमी से भय / भय से / युद्धोन्मत्त हैं देश” ( पृष्ठ 41) केवल भय ही नहीं वो असहमति को भी युद्ध और
हिंसा का कारण स्वीकार करते हैं हम आज देख रहे हैं छोटी छोटी धार्मिक असहमतियां भी
आज दो समुदायों के मध्य हिंसा का कारण बनकर उपस्थिति हो रही है | कही इसाईयों और मुस्लिमों का संघर्ष , कहीं मन्दिर और मस्जिद का संघर्ष , यहां तक की एक ही धर्म और जाति मे पूजा पद्धतियों को लेकर आपसी हिंसा देखने मे
आ रही है । मिथकों को लेकर आपसी हिंसा तो हम देख चुके हैं । सारी असहमतियां यदि
सहिष्णुता मे तब्दील हो जाएं तो शायद हिंसा भी न रहे लेकिन युग बडा ही खतरनाक है
आज असहमतियाँ असहिष्णुता का कारण बनकर मनुष्यता के लिए संकट बन चुकी हैं असहमति का
विरोध करते हुए कवि कहता है " उनमे से कोई किसी से सहमत नहीं / सबकी अपनी ढपली /
सबका अपना सच /
सबकी अपनी राय /
वे कभी एकमत नही हुए / और आज भी बहस जारी है” (पृष्ठ 38) कभी एकमत न होना ही ऐतिहासिक द्वन्दवाद का
तकाजा है । संघर्ष अनादि काल से जारी हैं तो दुख भी आनादि हैं पीडाएं भी अनादि है |
इन पीडाओं और दुखों कुचक्रो का विश्लेषण करते समय राजकिशोर राजन ऐतिहासिक
सन्दर्भों का जिक्र करना नही भूलते ह़ै यह उनकी
एतिहासिक सतर्कता का प्रमाण है ।कुशीनारा
से गुजरते मे बहुत सी कविताएं हैं तो बौद्धकालीन इतिहास को प्रमाणित करती हुई इस
मिथकीय रचना को यथार्थ का अमली जामा पहनाती हैँ । चूँकि कथा ऐतिहासिक है इसलिए
कल्पना के समावेश का अवकाश बेहद कम है | इतिहास से ही चरित्र गढना लेखकीय बाध्यता है । राजन इस बाध्यता का पूरा निर्वहन करते हैं संग्रह पढते समय कहीं
नही प्रतीत होता कि कवि इतिहास में टूटन फूटन कर रहा है | वह पुनर्लेखन नही करता
वह इतिहास को यथार्थ की तरह देखता है आधुनिक मूल्यों की छाया की तरह प्रस्तावित
करता है | सारिपुत्त , कन्तक , चुन्द ,महाप्रजापति ,जनपद कल्याणी ,दीर्धनख , उत्पलवर्णा ऐसे ही चरित्र हैं या कहिए
अवधारणाएं हैं जिनकी वही पूर्वमान्यता इस कविता संग्रह में है जो बौद्ध साहित्य मे
है | कवि ने कोई परिवर्तन नही किया है परन्तु अपनी कलात्मक कथागुम्फन व प्रसंगों
के नये पाठ द्वारा ऐतिहासिक प्रसंगों का समय की हिंसा चिन्हित करने मे कुशलतम
प्रयोग जरूर करता है । यही कला इस कवि को आज की समकालीन कविता मे सबसे अलग खडा कर
देती है । मैं बुद्ध और मार्क्स मे बार बार तुलना इसलिए कर रहा हूं कि यह सम्भवतः
कवि का भी अभिमत है | क्योंकि कवि प्रगतिशील
है वह केदार नागार्जुन की परम्परा का समकालीन हस्ताक्षर है निश्चित है उसकी आस्था
मार्क्स के प्रति है | लेकिन भारतीय सामाजिक समरता के लिए बुद्ध अधिक उपयोगी है
यही कारण है हिन्दुस्तान के अभावग्रस्त , सदियों से उपेक्षित
समुदाय बुद्ध के अनुयायी हैं । लेकिन कवि के प्रगतिशील आग्रह बुद्ध के बरक्स आ ही
जाते हैं । जहाँ पर ऐसे आग्रह उपस्थित हुए हैं वहां कविता शक्तिशाली कथ्य लेकर आती
है वह कवितांश बेहद जरूरी अभिकथन बन जाता है | मार्क्स परिवर्तन का विरोधी नही है
मार्क्स के अनुसार परिवर्तन समाज व जगत की स्वाभाविक अनिवार्य प्रक्रिया है जो
निरन्तर चलायमान रहती है | राजकिशोर राजन के बुद्ध और मार्क्स दोनो इस बिन्दु पर
एक मत है बुद्ध तो परिवर्तन का विरोध भी हिंसा कह देते हैं| देखिए "पर अजब गजब की बात / संसार में करते आए हम / हमेशा परिवर्तन का विरोध / युद्ध करते आए / लडते मरते आए /
जडता के पक्ष में (पृष्ठ 88) परिवर्तन का विरोध नवीनता का विरोध है
नवीन चेतना ही युग का संवाहक बनती है जडताएं प्रतिक्रियावाद की ओर ले जाती हैं कवि
ने प्रगतिशीलता और बौद्धिज्म का सुन्दर आमेलन किया है यही आमेलन इस कृति को
वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टि से लैस कर तमाम उत्पीडनकारी शक्तियों के प्रतिपक्ष में
खडा कर देता है । यदि जडता परम्परा है तो परिवर्तन आधुनिकता है ।परिवर्तन ही बनी
बनाई धारणाओं का खंडन करके प्रेम के पक्ष मे माहौल तैयार करता है । जी हां प्रेम
युद्ध का प्रतिपक्ष है । इस कृति मे महज विरोध और विश्लेषण भर नही है प्रेम का सकारात्मक अनुचिन्तन है । कुशीनारा से गुजरते को
यदि हम प्रतिपाद्य के आधार पर प्रेम का तर्कशास्त्र कहेँ तो अतिशयोक्ति नही होगी ।
प्रेम लिए हिंसा और प्रतिहिंसा का खंडन व हिंसा और प्रेम के आपसी विरोध को दिखाना
जरूरी होता है राजकिशोर राजन जितना हिंसा का विरोध करते हैं उतनी ही मुस्तैदी और
तर्क के साथ प्रेम और भाईचारे का वैज्ञानिक संस्थापन भी करते हैं | देखिए एक कविता
" जो लडा नहीँ युद्ध / देखा नहीं रक्त की नदी / चित्कार हाहाकार / नहीं समझ पाएगा
/ प्रेम का अर्थ /
उसके लिए क्षमा शान्ति अहिंसा व्यर्थ” (पृष्ठ 14) अर्थात प्रेम की महत्ता तभी समझी जा सकती
है जब हिंसा की गर्म लपट का अनुभव हो इस कविता को लोग उल्टा भी पढ सकते हैं कि
प्रेम के लिए युद्ध जरूरी है ।पर यहां युद्ध को जरूरी नहीं बताया गया है
प्रेम को जरूरी बताया गया है | युद्ध का उल्लेख प्रेम का विपरीत तय करने के लिए किया गया है न कि प्रेम के
लिए युद्ध की अनिवार्यता कही गयी है ।युद्ध का विरोध प्रेम द्वारा ही तय सकता है
प्रेम मे विस्तार और घनत्व अन्य भावनाओं की अपेक्षा अधिक होता है राजकिशोर राजन भी व्यक्तित्व को समूचे जगत मे विस्तारित कर देने के पक्षधर हैं उन्होने
सारिपुत्त के मुख से कहलाया है कि "तथागत मैने नहीं देखा विस्तृत नभ को / देखा पृथ्वी को / और हो गया पृथ्वी ही / देखा जल की ओर / और हो गया जल ही ( पृष्ठ 17) यह मानव का विस्तारित चेतना से जुडना है |
समूचे ब्रम्हाण्ड मे अपनी उपस्थिति और आसक्ति का प्रमाणन है । कोई भी बडा कवि हो
वह अपनी सत्ता को जागतिक सत्ता के निर्माणकारी तत्वों से जरूर जोडता है । पृथ्वी , जल , अग्नि इत्यादि निर्माणकारी तत्व हैं जो वैदिक काल से अब तक चले आ रहे हैं इनसे
खुद को जोड लेना वैयक्तिकता को सार्वजनिक सत्ता मे डुबो देना है । अर्थात
सार्वजनिक हो जाना संसारिक सत्ता मे स्वयं को अर्पित कर देना है | सार्वजनिक हो
जाने के बाद व्यक्ति लोक के लिए जीता है लोक की रक्षा के लिए संघर्ष करता है लोक
के दुख से दुखी होता है लोक के सुख से सुखी होता है । सार्वजनिक होने का उल्लेख तुलसी , सूर , निराला , भी करते हैं राजकिशोर इस तथ्य को दूसरे ढंग से भी कहते हैं वह संकेत करते हैं कि
"सबका दुख आपका दुख /
सबका सुख आपका सुख /
कविता यही लेकर तो / होती है कालयात्री” ( पृष्ठ 36) यहां स्वयं को सबकी सत्ता में विलीन कर
देने का आग्रह है यही है निजत्व छोडकर सार्वजनिक हो जाना । बुद्ध सार्वजनिक हो गये
थे मार्क्स भी सार्वजनिक थे गाँधी जयप्रकाश नारायन भी निजी नही रह गये थे । इस बात
को वो कविता के सरोकारों की तरह देखते हैं जैसे कविता का लक्ष्य है बाकौल तुलसी 'सुरसरि सम सब कर हित होई' वही लक्ष्य जीवन का हो जाता है शायद यही
कारण है राजन ने "हे तथागत / आप स्वयं कविता " ( पृष्ठ 36)
कहकर बुद्ध के सार्वजनिक व्यक्तित्व को
कविता का व्यक्तित्व कहकर परिचित करा देते हैं । इस कविता
से कवि के सरोकार भी पता चल जाते हैं कि वह कविता क्यों लिख रहा है | कवि जनपक्षीय
और लोकधर्मी रचनाकार है उसने जनहित से कविता को जोडकर चली आ रही प्रगतिशील काव्य
परम्परा के साथ अपनी आस्था प्रकट की है | राजकिशोर राजन ने भूमिका मे लिखा है कि "आज साहित्य में दलित विमर्श और स्त्री
विमर्श जो अब स्वतन्त्र रूप ग्रहण कर आगे की राह चल पडा है का पथ बुद्ध के धम्म ने ही प्रशस्त
किया था" यह बात बहुत से लोगों को कुतर्क प्रतीत हो
सकती है लेकिन सच यही है क्या कारण है दलित , आदिवासी और शोषित समुदायों मे ही आज बौद्ध
धर्म बचा है ? क्योंकी जातीयता और शोषण का तर्कशास्त्र
धार्मिक शास्त्रों ने बनाया था ।लोगों के बीच आपसी विभेदों का कारण जातीय
शास्त्रवाद भी है । जातिवाद शोषण और मानव द्वारा मानव के लिए अमानवीय तर्कों को
प्रतिपादित करता है यदि समाज मे आपसी भाईचारा कायम रखना है हिंसा से जनता को बचाना
है तो शास्त्रों का विरोध भी जरूरी है । राजसत्ता की हिंसा का हथियार शस्त्र थे तो
मानव और मानव के बीच हिंसा का हथियार शास्त्र थे | दोनो ने अपने अपने तरीके से
हिंसा को पोषित किया इसलिए राजन बुद्ध के संकेत द्वारा आज की जातीय संरचना का
नैतिक प्रतिरोध करते हैं हाशिए की अस्मिताओं के पक्ष मे शास्त्र विरोध का नया तर्क
प्रस्तुत करते हैं जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जितने भी दलित आन्दोलन हुए हैं
उनका मूल प्रहार पौराणिक सामन्ती सामाजिक ढाँचा निर्मित करने वाले शास्त्रों पर ही
रहा है इसलिए विमर्शों का आधार वो बुद्ध को बताते हैं क्योंकी बुद्ध ने शास्त्रों
का शस्त्रों की तरह विरोध किया है उन्हे भी हिंसा का कारण माना है " भले आज टल
जाए युद्ध /
जब तक रहेगा शस्त्र / रहेंगे युद्धोन्माद मे हम / मैत्रीभाव से रहित सदा /
शस्त्र त्यागा सिद्धार्थ ने /
शास्त्र त्यागा बुद्ध ने / जिस दिन त्याग देगा / शस्त्र और शास्त्र / बोधिसत्व होने की ओर / बढेगा संसार” ( पृष्ठ 40) इस कविता की आखिरी पंक्ति बडी जरूरी है
बोधिसत्व होने की ओर संसार के बढने का मतलब है कि जिस दिन शस्त्र और शास्त्र का
त्याग हो जाएगा तो हर आदमी सार्वजनिक हो जाएगा संसार मे सभी एक दूसरे के लिए जिएगे
एक दूसरे से वगैर किसी स्वार्थ और दबाव के प्रेम करेगें मैत्री से रहेगे तब यह दीन
जगत दुखों और पीडाओं से विरत होकर नये समाजिक संरचनात्मक बदलावों की ओर बढेगा ।
शास्त्रों को हथियारों के बराबर मानने से समझा जा सकता है कि बुद्ध के जेहन मे
जातीयता के विरुद्ध कितनी पीडाएं थी वह कैसा समाज चाहते थे । वो सारिपुत्त के
माध्यम से कहलाते हैं "शिष्य बन गया शास्त्र / उस दिन स्रोत का / वह स्रोत जिसमे प्रेम , क्षमा , करुणा मिलकर /
हो जाते हैं एकाकार " अर्थात जिस दिन शास्त्र मनुष्य का सेवक बन गया या मनुष्य के हित के लिए हो गया
उस दिन इस धरती पर प्रेम करूणा दया
की स्रोतस्विनी बह निकलेगी और समूचा जगत हिंसा से रहित होकर आपसी प्रेम व भाईचारा
में जीवन व्यतीत करेगा समूची मानवता तथागत हो हो जाएगी हर आदमी कविता हो जाएगा ।
यही इस लम्बी कविता रुपी कविता संग्रह का
प्रतिपाद्य है | कुशीनारा से गुजरते का प्रतिपाद्य आधुनिक और तमाम विमर्शों के
लिहाज से शक्तिशाली स्थापनाओं का दार्शनिक आधार तर्क द्वारा प्रस्तुत करता है । मिथक
का इससे सुन्दर व जोरदार विश्लेषण समकालीन कविता मेँ नही मिलेगा । इतिहासबोध , द्वन्दात्मक पद्धति के द्वारा तमाम अस्मिताओं के उभरने का संकेत भी राजकिशोर
राजन दे देते हैँ । हिंसा के अपरूप कितने प्रभावी और पृथक होते हैं इस कविता
संग्रह से समझा जा सकता है । मैं इस कविता संग्रह की भाषा और कला पर नहीं जाऊंगा
क्योंकी यह कवि का ध्येय नही है फिर भी यह युवा कवि बिम्बों का भाषायी समानान्तर
संसार रचते हुए कहीं भी कमजोर भाषा का सहारा नही लेता है इतिहास संस्कृति भाषा के
साथ इतनी गहराई तक गुँथ गयी है कि प्रतीत होने लगता है कवि अपनी मौलिक भाषा के साथ
तमाम हिंसाओं को चिन्हित करता हुआ समाज के लिए वर्गविहीन जातिविहीन हिंसाविहीन
स्वप्न को रच रहा है स्वप्न के विस्तार के समान ही अनुभवों का भी विस्तार करते हैं
अनुभवों के विस्तार के साथ ही भाषा का भी विस्तार हो जाता है यही कारण है यह कविता
संग्रह पाठक को पुरातन मिथक का पुनर्पाठ कराते समय भी समय के प्रति सचेत रखता है और आधुनिकता का प्रभावी
हस्तक्षेप करते हुए नींद और स्वप्न की अनेक परतों में सिमटे यथार्थ को उघाडकर
सामने रख देता है । यह कविता संग्रह आज के अनास्थावादी दौर में आस्था का पुनर्पाठ
है |
बबेरू , जनपद बाँदा
9838610776
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 28 अक्टूबर 2017 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंतार्किक !
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