[कविद्वय विजेंद्र और एकांत पर केन्द्रित
यह समालोचना पत्रिका 'लहक' (संपादक - निर्भय देवयांश )के अंक अक्तूबर-नवंबर, 2016 में प्रकाशित
हुई है । ]
अन्तर्विरोधों से ग्रस्त अवसरवाद का अन्यतम नमूना
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विजेंद्र के इस विचलन से लोक के पक्ष में चल रहे अभियान को धक्का लगा है।
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धूमिल विजेंद्र से मीलों आगे हैं।
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विजेंद्र लोक धर्मी कतई नहीं हैं। उनको लोक और लोक जनचरित्रों की कोई पहचान
नहीं है।
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परिवर्तन जगत का नियम
ही नहींहै, जरूरत भी है । मार्क्स ने कभी कहा
था कि मार्क्सवाद कभी जड़ नहींहोता, वह निरन्तर
परिवर्तनधर्मी विचारधारा है । कोई भी विचारधारा हो समयानुकूल स्वयं को परिवर्तित
और परिवर्धित करती रहती है । यदि विचारधारा सिद्धांत को जड़ मानकर अपरिवर्तन की
प्रस्तावना करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि विचारधारा प्रतिक्रियावाद की जननी बन
चुकी है। वह उसी पंथ की गामिनी हो चुकी है
जिस पंथ पर चलकर हजारों विचारधाराओं ने स्वयं की हत्या की है। वैचारिकता को सामाजिक
संरचनाओं के अनुकूल बनना ही पडता है। यदि वह अपने आप को नई संरचनाओं से अनुकूलन नहीं स्थापित कर पा रहीं
तो वैचारिकता के कोई मायने नहीं है । मगर हर एक परिवर्तन को परिवर्तन की संज्ञा
नहीं दी जा सकती है। परिवर्तन यदि सामाजिक सरोकारों की भूमि पर नहीं है यदि वह वैयक्तिक
समझ और स्वार्थ पर आधारित है तो उसे या तो भटकाव कहा जाएगा या अवसरवाद कहा जाएगा ।
परिवर्तन को परिवर्धन कहना अधिक न्यायसंगत है । इससे विचारधारा की जनसमझ व युगबोध में
वृद्धि होती है। विचारधारा के नए आयामों में नवचेतना का उन्मेष होता है । लेनिन , माओ,ग्वेरा, स्तालिन ने परिवर्तन किया था इसीलिए मार्क्सवाद आगे
की सदी के लिए सामाजिक विज्ञानों के लिए सबसे उपयुक्त विचारधारा के रूप में
स्थापित हो सका है । यदि परिवर्तन वैयक्तिक समझ पर आधारित है या सिद्धांतों की
मनमानी पूर्ण व्याख्याओं की पीठिका तय कर रहा है तो उसे परिवर्धन नहीं कहा जा सकता
है । मनमानीपूर्ण व्याख्याओं से विचारधारा
का हनन होता है। वह अपनी जमीन खोकर जनता से कटकर अपनी सामाजिक उपस्थिति को खो देती
है। बौद्ध दर्शन के साथ यही हुआ जिस देश में बुद्ध ने अपनी विचारधारा को वैदिक
अभिजात्य सिद्धांतों के विरुद्ध खडा किया, जिसने
अनीश्वरवाद की जोरदार स्थापना की, आज उसी
विचारधारा के अनुयायी यहां से विलुप्त हो गये हैं। जिस विचार ने ईश्वर की सत्ता को
नकारकर यथार्थ की स्थापना की, उसी
विचारधारा ने बुद्ध को ही भगवान बनाकर पूजापाठ करना शुरू कर दिया था । ये सब
मनमानीपूर्ण तर्कहीन व्याख्याओं के कारण हुआ । जब परिवर्तन निजी लाभ या वैयक्तिक
रिश्तों के निर्वहन के लिए होता है, पुरस्कार पद
अथवा किसी पत्रिका का अंक अपने ऊपर केन्द्रित कराने के लिए होता है तो जाहिर इसे
हम अवसरवाद कहेंगें । अवसरवाद इसलिए भी कि इसमें अपने संगी-साथियों के संघर्षों व
उनके रिश्तों व विश्वास को पल भर में छिन्न-भिन्न करके थोड़े से लाभ के लिए वैचारिक
अनुलोम -विलोम का तर्कहीन स्वार्थपरक प्राणायाम किया जाता है और इस कुतर्क के साथ
किया जाता है कि फला तो ऐसा था, अब बदल गया
है। अवसरवादियों के पास कोई माकूल जवाब नहीं होता है, वह आत्ममुग्धता के भीषण रोग से इस कदर पीड़ित होते हैं
कि उनका विवेक और विचारधारा निजी हित की अवधारणा से लैस होकर स्वार्थ की काली नदी
पर गोते लगाने लगती है । अवसरवादी कभी स्वस्थ बहस नहीं करते, बल्कि रिश्ते खतम कर देते हैं । उनके लिए संघर्ष और
संगठन की समस्त नीतियां धत्ता होतीं हैं । न धारा होती है, न विचार होते हैं, न आदर्श
होते हैं, न समझ का अत्याधुनिक पक्ष होता है । आजकल हिन्दी के
पास तीसरे कोटि के परिवर्तनकामी महात्माओं
का जखीरा है । आए दिन बड़े लोगों में पाला बदलने की खबरें मिलती रहती हैं जो व्यक्ति
भाजपा को पानी पीकर गाली देता था, वही आदमी
जाकर कल्याण सिंह से पुरस्कार झटक लाता है । जिस कवि ने प्रतिरोध की आवाज आगाज की, वही व्यक्ति प्रतिरोध को नौटंकी करार दे रहा है। जिस
लेखक ने सबसे पहले पुरस्कार वापस किया, वही सबसे
पहले भाजपा और जी टीवी द्वारा आयोजित प्रायोजित जयपुर सम्मेलन में पहुँचा । एकदम
अन्धेरगर्दी है। समझ में नहीं आ रहा कि इन लेखकों-कवियों का पक्ष क्या है। इनकी
चेतना क्या है । इनके सरोकार क्या हैं। विचार ओर कार्य में जबरदस्त अन्तर्विरोध
दिख रहे हैं। सुबह माकपा कार्यालय में
दिखते हैं तो शाम को भाजपा की बैठक में दिखते हैं। सुबह फासीवाद पर लम्बा भाषण
देते हैं तो शाम को फासीवादी मंच की अध्यक्षता करते हैं। गिरगिट की तरह दिन में
हजार रंग बदलते हैं । ऐसा तब और खतरनाक हो जाता है जब ऐसे लोग खुद को वाम पंथ से
जोड़ते हैं । अपने कुकृत्यों से किसी संगठन और विचारधारा को भी कटघरे में खडा करने
लगते हैं । अशोक बाजपेयी , उदय प्रकाश , ओम थानवी का पल पल
परिवर्तित भेष आप सबने देखा होगा। ये लोग
कभी भी, कहीं भी किसी के
पक्ष में पाला बदल सकते हैं। साहित्यिक पाला-बदल का सबसे ताजा खेल कुछ दिन
पूर्व वरिष्ठ कवि विजेन्द्र ने खेला है । लोक की जिस अवधारणा के वे पुरोधा थे, उस
अवधारणा की रीढ पर प्रहार करते हुए लोक को परलोक का चाकर बना दिया है । लोकधर्मी
कविता पर हमले का मूल कारण है कि इसमें आधुनिक पूँजीकृत संस्कृति द्वारा गढी गयी
नई संरचनाओं को जगह नहीं दी गयी है । जब हम जाति और स्त्री के सवाल पर हाशिए की
अस्मिताओं के कठिनतर जीवन के सन्दर्भ में कुछ लोकधर्मी कवियों को देखते हैं तो
सबके सब खारिज हो जाते हैं। विजेन्द्र द्वारा तयशुदा लोक और उनके कवियों का
लोक इतना लचीला और अमीबा टाईप है कि उसकी
तह में दक्षिण और वाम का भेद मिट जाता है । अभी भी उनके अधिकांश प्रिय कवि और
आलोचक न तो वाम की समझ रखते हैं न वाम के क्लास
स्ट्रगल को आधुनिक जातीय संरचनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखने की कूव्वत
रखते हैं । अधिकांश तो दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक हैं । एक लोकधर्मी कवि तो
वाकायदा वाम को गाली देता है। विजेन्द्र की प्रशंसा ही इन बुर्जुवा लेखकों को
लोकधर्मी होने का वैधानिक प्रमाणपत्र है । लोक की इन गड़बड़ियों के कारण चार
साल पहले विजेन्द्र पर बडा हमला हुआ था । इस हमले के सूत्राधार भी कोई बडे पक्षधर नहीं
थे, न बडे कवि थे। लेकिन हमला पूर्ण वैचारिक और तार्किक
था । इस हमले से विजेन्द्र उकडूँ हो गये थे। कोई जवाब उनके पास नहीं था । तब मैने
लोक को आज की संरचनाओं के अनुरूप परिभाषित करते हुए विजेन्द्र के पक्ष को नये ढंग
से रखा था और जाति के सवालों को स्त्री और अल्पसंख्यकों के सवालों को लोक के तहत
व्याख्यायित किया था। इस बहस के बाद लोक पर मेंरा एक लम्बा आलेख आया था जो “पहली बार”
ब्लाग में प्रकाशित हुआ था बहुत से लोगों ने इस नयी व्याख्या को सराहा था और आज की
स्थिति के अनुरूप लोक की परिभाषा को स्वीकार करने वालों की संख्या भी बढने लगी। चार
सालों में हमने, हमारे साथियों ने जगह-जगह आयोजन कराए,
सम्मेलन कराए, आन्दोलन किए, पत्र और पत्रिकाएं भी निकालीं। लोक के प्रति
लोगों में समझ बढी । रुझान बढा । मगर विजेन्द्र पूर्ववत रहे । वे इस आन्दोलन पर एक
शब्द नहीं बोले, न एक शब्द लिखा। इसका कारण था कि नए लोगों की टीम ने
रौमैन्टिसिज्म और हवा हवाई, वाह वाही, ग्राम देवता, चिड़िया, चाँद ,हवा जैसी थोथी
कल्पनाओं से लैस लोक को नकार दिया था। लोक की बदनामी के पीछे लोक के तथाकथित कवि
ही रहे हैं। एकान्त श्रीवास्तव, बद्रीनारायण, अष्टभुजा शुक्ल, बोधिसत्व, विजय सिंह
और केशव तिवारी जैसे कवियों ने लोक को वगैर समझे लोक के नाम पर कविता नामक धन्धे
को अन्जाम दिया । ये लोग लोक के सृजक नहीं थे, दुकानदार थे । जिस
भी व्यक्ति ने लोक में नयी व्यवस्था के अनुरूप जाति और हाशिए के सवालों को उठाया
या प्रतिरोध की आवाज को बुलन्द किया, ये लोग उसी को लोकविरोधी होने का तमगा दे देते
रहे । इन लोकवादियों ने वाकायदा गैंग की तरह काम किया,
पुरस्कार निकाले, उसे अपनों को बाँटा,
नये-नये मठ बनाए, पत्रिकाओं में विशेषांक निकाले गये । पर कविता
की भाषा और भंगिमा में विजेन्द्र और उनके लोकधर्मी सामन्ती ही रहे | इनके एक
आलोचक तो आत्मा और परमात्मा को भी लोक में सम्मिलित कर देते हैं । अस्सी के दशक के लोक को आज के दशक में थोपना सरासर जड़बद्धता है, लोक की सामन्ती समझ रखने वाले तथाकथित लोकधर्मी अभी
भी लोक को उसी ढर्रे पर ढो रहे हैं जिस ढर्रे पर वे वर्षों पहले ढोते थे । उनके लिए भूमंडलीकरण और बाजारवाद जैसी चीजें है
ही नहीं। उन्हें स्त्री का पसीना तो दिखता है, पर
पुरुषवर्चस्वाद की आहट नहीं सुनाई देती है। उन्हें किसान बाला का सौन्दर्य आकर्षित
करता है, पर सरकारी नीतियों के कारण आत्महत्या कर रहे किसान और
उनके भूखे मरते बच्चे अभी भी नहीं दिखते हैं। गाँव में खूबसूरत प्रकृति का मधुरिम
नजारा मिलता है, लेकिन बेरोजगारी से पलायित और
जनहीन गाँव नहीं दिखता है।
विजेन्द्र सैद्धांतिक तौर पर कल्पनाधर्मी लोक के आलोचक थे। उन्होंने भी अपने लेखों में संघर्षधर्मी लोक को महत्व
दिया है। मगर बिम्बों और यथार्थ का पुराना
अनुभव उन्हें आज की वास्तविक सच्चाईयों से दूर कर रहा है। यही कारण है, आज
वे हिन्दी के पिकनिक सुख-बोधी खाए-पिए-अघाए मौजमस्त जैसे लोक की भूरि-भूरि प्रशंसा
कर रहे हैं ।जिन कवियों की जद से लोक को
बचाने का उपक्रम किया था, उन्होंने आज उन्हीं के साथ कदमताल कर रहे हैं
। जिस पत्रिका को आज से तीन साल पहले सेठाश्रित और बुर्जुवा कहकर तीखी आलोचना की
थी,
वही आज उनके लिए लोकधर्मी हो गयी है । विजेन्द्र के इस विचलन से लोक के पक्ष में
चल रहे अभियान को धक्का लगा है । मेंरे जैसे सैकडों नयी पीढ़ी के लोग आश्चर्यचकित
हैं,
हतप्रभ हैं। विजेन्द्र ने लोक को अपने हित में नये विचलन का शिकार बना दिया है,
वैचारिक पंगुता को ढोने के लिए हम लोग
अभिसप्त हो चुके हैं। पर विजेन्द्र अपने तर्कों-कुतर्कों और समर्थकों
के साथ “एकान्त” को और “वागर्थ” को स्थापित करने का नया वितान रचने को कटिबद्ध हैं।
विजेन्द्र का एकान्त प्रेम उनकी लोकपक्षधरता को अन्धेरगर्दी की भयानक सीमाओं में
कैद कर देता है ।यह अन्धेरा समझ और चेतना दोनो का है एक वरिष्ठ
कवि चन्द लाभ के लिए महज एक अंक निकालने पर काव्यालोचन की ईमानदारी को कैसे
तिलांजलि देता है विजेन्द्र का एकान्त प्रेम जता देता है । कृतिओर का 80 वां अंक
जिसके आरम्भ में ही विजेन्द्र ने एकान्त की कविताओं पर जो लम्बा आलेख लिखा है। वह कुतर्क का पुलिन्दा है। बेवजह की प्रशंसा व
थोथी वाहवाही है। विजेन्द्र अपनी वरिष्ठता का ख्याल अक्सर नहीं करते। उन्हें
विचारधारा से अधिक अपने ऊपर निकाला गया पत्रिका का अंक प्रिय है । एकान्त ने ‘वागर्थ’ का
विजेन्द्र के ऊपर अंक निकालकर लोकधर्मी काव्य की सबसे कमजोर कड़ी पर प्रहार किया है
। लोकधर्मिता का ऐसा आलोचकीय पाखंड मैने कभी नहीं देखा। यह विचलन तो नामवर सिंह के
विचलन से भी अधिक घातक और घृणित है । विजेन्द्र ने एकान्त को पढा है कि नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन उनकी आलोचना जता रही है कि उन्होंने
बिल्कुल नहीं पढा है और आलोचक किसी नैतिक
मजबूरी में फँसकर उपकारों का प्रतिदान कर रहा है । ‘कृतिओर’ का अस्सीवां अंक विजेन्द्र की लोकधर्मी असफलता का
प्रमाणिक अभिलेख है । आप भी देखिए विजेन्द्र एकान्त को कैसे परख रहे हैं “मुझे एकान्त की कविताओं के बिम्ब बहुत ही टटके
और लोकधर्मी लगे” (कृतिओर 80 पृष्ठ)
विजेन्द्र को एकान्त की कविता के बिम्ब बडे ही लोकधर्मी लगे । पता नहीं, विजेन्द्र लोकधर्मिता के मायने क्या समझते हैं ।
एकान्त की एक भी कविता में लोकधर्मी बिम्ब नहीं है । यदि
लोक को ‘डायलैक्टिक
मैटेरियालिज्म’ से हटकर देखना है, अभिजात्य सौन्दर्यबोध के सुचिन्तित भाषा खेल
को बिम्ब कहना है तो हो सकता विजेन्द्र एकान्त में लोक के दर्शन कर लें । लोक
के मायने बिम्ब नहीं हैं, बल्कि सपाट भंगिमा भी लोकधर्मी होती है । आज
बिम्ब-विधान से अधिक सपाट कथन की जरुरत है क्योंकि बिम्ब गाहे-बगाहे कलावाद की
प्रतिष्ठा कर जाते हैं, जबकि सपाट कथन प्रतिरोध का शिल्प बन चुका है। वगैर सपाट
भंगिमा के प्रतिरोध नहीं हो सकता है क्योंकि प्रतिरोध कविता का शिल्प नहीं है, जरूरत है और बिम्ब के आवरण में छिपा प्रतिरोध कविता
के पक्ष को नुकसान भी कर सकता है। कवि की ईमानदारी पर भी सवालिया निशान लगा सकता
है । एकान्त के बिम्ब बहुधा हवा-हवाई और अमूर्तन का शिकार होते हैं, जबकि लोकधर्मी कविता में बिम्ब के अमूर्तन का मामला अक्षम्य
है। यदि कवि ने यथार्थ से उपार्जित संवेदनाओं द्वारा भाषा ली है तो स्वाभाविक है
वह किसी भी बात को सीधे कहेगा। वह अमूर्तन जैसे प्रयोगों से बचेगा । सीधे कहने से
ही आम पाठक समझता है। वह बिम्ब भी प्रयोग करता है तो संवेद्य और प्रभावी होते हैं ।
उसमें संवेदना को ज्ञान तब्दील कर देने वाली भाषा का प्रयोग करता है। एकान्त में
ये सब कुछ नहीं है। उनकी भाषा और बिम्ब का
उदाहरण देखिए, कविता है- कातिक का स्नान करने
वाली लडकियाँ । इस कविता का लोकधर्मी व जनसंघर्षी बिम्ब परखिए, जिसे लेकर विजेन्द्र गदगद हैं और ऐसे बिम्बों के
कारीगर एकान्त को बडा लोकधर्मी कवि कहने को मजबूर हैं “तालाब के गुनगुने जल में / नहाती हुई
लडकियाँ हँसती हैं / छेडती हैं एक दूसरे को / मारती हैं छीटे / और लेती हैं सबके
मन की थाह”। विजेन्द्र, इस बिम्ब को देखें। इसमें संघर्ष कहां है ? अभिधा-लक्षणा-व्यंजना
तीनो शब्दशक्तियों में से किस शब्द शक्ति द्वारा यहां संघर्ष है । क्या यह बिम्ब
लोकधर्मी है ? स्त्री की अस्मिता को सौन्दर्य की भाषा देकर एकान्त ने इस कविता में
स्त्री को गलत नजरिये से देखा है । कातिक
शब्द गाँव का
है। केवल एक शब्द से इसे लोकधर्मी नहीं कहा
जा सकता है। यदि इस कविता में स्त्री के
इस स्नान के पीछे जडवत बैठी पुरुषवादी सोच को आलोचित किया जाता तो बिम्ब को
लोकधर्मी कहा जा सकता था पर एकान्त के लिए आधुनिक सामाजिक संरचनाओं व हाशिए के
संवर्गों का नाम लेना कठिन है। भले ही वे नाम न लें पर विजेन्द्र के लिए एकान्त
सबसे बडे लोकधर्मी कवि हैं। विजेन्द्र आगे लिखते हैं “मुझे एकान्त की आरम्भिक
कविताओं में भी ऐसे बिम्ब दिखे जिनमें चिन्तन का आधार पुष्ट था । बिना चिन्तन के
कविता विश्ववन्द्य नहीं होती है । उसकी अपील बडी सीमित होती है अर्थात ऐसे बिम्ब
एकान्त में बहुल हैं जो कवि की विश्वदृष्टि भी कहें, उसमें
अग्रगामी दिशा है” विजेन्द्र के इस कथन को कोई भी समझ सकता है कि यह बलात् (जबरिया)
लिखा गया है । जिस तत्व से कवि का नाता दूर-दूर तक न हो, उसे कवि पर थोप देना फौरी तौर पर की गयी प्रतिक्रिया
लगती है । कवि के किस चिन्तन आधार की बात विजेन्द्र कर रहे हैं, खुलकर नहीं कहा है । कोई भी कविता हो, वैचारिक आधार जरूरी होता है। एकान्त
का लोक अभिजात्य संवेदनाओं का खेला है । भाषा और कला की रीतिशास्त्रीय साझेदारी है।
वह बहुत सी कविताओं में सामन्तवाद के पक्ष में खडे हैं । कातिक का
स्नान करने वाली लडकियों से भी वह वरदान की चाह में भगवान शंकर की पूजा करा देते
हैं | ‘दुख’ कविता में
और ‘जन्मदिन’ कविता में वे
अपनी भी आरती और पूजापाठ करवाने लगते हैं। हिन्दुत्व के जितने ही पाखंड हैं, एकान्त में भरे पड़े हैं। यही उसका चिन्तन हैं, मनन है और दर्शन है । मुझे लग रहा है ये सब विजेन्द्र
को भी प्रिय है। इसलिए वे कवि को
विश्वन्द्य कह देते हैं, अर्थात
एकांत विश्व के पाठकों और आलोचकों के लिए अभिनन्दनीय और नित्य प्रति वन्दनीय हैं ।
एकान्त की जनविरोधी कविता विजेन्द्र को वन्दनीय हो सकती है। पूरे विश्व को वन्दना करने की ठेकेदारी ले लेना
चिरौरी और पूजापाठ की पराकाष्ठा है । विजेन्द्र को अपने पर वागर्थ का अंक चाहिए तो
वे आराम से वन्दन करें। उन्हें कुछ नहीं कह
सकते । विश्व क्यों वन्दना करे ? वागर्थ क्या सब पर अंक निकालने जा रही है ? इसी
कथन के अगले वाक्य में लगे हाथ विजेन्द्र विश्वदृष्टि भी कह देते हैं, भले ही इस कथन की पुष्टि के लिए उनके पास एक भी तर्क
न हो। पर कहने में विजेन्द्र चूके नहीं है
। विजेन्द्र से जानना चाहूंगा कि विश्वदृष्टि क्या है ? आप अपनी कविता में
वैश्विकता तो ला नहीं पाए हैं। एकान्त में
कैसे पहचान कर लिए ? वैश्विकता एक एक ऐसा विषय है जो हिन्दी में एकाध लोगों ने ही
अपनाया है। उसमें भी इन संकुचित परिधि वाले
आस्थावान लेखकों के होने का सवाल ही नहीं है । विश्व की राजनीति, औपनवेशिक हिंसा व
भूमंडलीकरण के द्वारा तयशुदा खतरनाक अन्तर्राष्टीय राजनीति , विश्व के तमाम शहरों
चेहरों और घटनाओं को कविता में एकान्त ने उकेरा है क्या ? मैने तो नहीं देखा है। विजेन्द्र
में भी वैश्विक कविताएं नहीं है। वैश्विक
कविताओं का सबसे बेहतरीन कवि सुधीर सक्सेना है, जिसकी कविताओं में चीन,
कम्बोडिया, बोस्निया,
पीचिंग, थिम्पु, यूरोप, अफ्रीका, ईराक, ईरान, रूस आदि के घटनाक्रम व वैश्विक पूँजीवाद का
अति भयावह रूप देखा जा सकता है। वैश्विक कविताओं की समझ और वैश्विक इतिहास की
द्वन्दवादी अवधारणाओं का अवलोकन करने के लिए मैं विजेन्द्र को सुधीर सक्सेना की
समरकन्द में बाबर पढने को कहूंगा । कम से इस तरह हल्के फुल्के ढंग से वगैर किसी
आधार के वे हर किसी कमजोर कवि को वैश्विक कहने से तो बचेंगे । वैश्विकता की समझ
विजेन्द्र को नहीं है । वे महज वादघात कर रहे हैं । ऐसी भोथरी स्थापनाओं का कोई
मतलब नहीं होता है । एकान्त बेहद संकुचित फलक वाले विचारहीन कवि हैं। उनकी पूजापाठ करने की अदम्य इच्छा और करवाने का
अदम्य उत्साह देखकर मुझे लगता है कि उन्हें कविता न लिखकर भजन लिखना चाहिए। तभी विजेन्द्र जैसे उनके नव्य आलोचक उन्हें सबसे
बडा लोकधर्मी कहेगे। विजेन्द्र ‘कृतिओर’ के इसी अंक में आगे लिखते हैं “एकान्त अपने
बिम्बों में ऐसी ही पुनर्रचना करके जड़ यथास्थिति को भंग करते हैं” यह विजेन्द्र के आस्था बद्ध कुपाठ का बेहतरीन
नमूना है । एकान्त के समर्थन में वे आनन्दवर्धन के श्लोक का
उदाहरण देते हैं । ‘ध्वन्यालोक
काव्य’ में ध्वनि के साथ-साथ शैव चिन्तन का भी प्रतिपादन
करती है । ध्वन्यालोक आनन्दवर्धन का काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। इस श्लोक के द्वारा वे एकान्त को प्रजापति
ब्रम्ह बना देते हैं, यह मुझे समझ
में नहीं आता। यदि पुनर्सृजन की बात ही
करनी थी तो बडे रूसी काव्यशास्त्री चेर्नोवस्की का अभिमत देखते आनन्दवर्धन क्यों
याद आ गये ? चेर्नोवस्की यथार्थवादी थे। कल्पना और कला को यथार्थ से पृथक करके मनुष्यता
को काव्य और कला का आधार मानते थे । धर्म
और पांखड के घोर शत्रु थे । इसलिए वे
विजेन्द्र को नहीं रुचे और वे आनन्दवर्धन के श्लोक के सहारे पुनर्रचना को
व्याख्यायित करने लगे । पुनर्रचना केवल कलम घिसना नहीं है । यह बात विजेन्द्र को
समझनी चाहिए। पुनर्रचना यथार्थ का अंकन है।
कवि यथार्थ का अंकन जब परिष्कार करते हुए उसे जनोपयोगी बनाकर कविता
में सहज जनभाषा द्वारा ढालता है और कलात्मक कवायदों से रहित सर्व समझ की कविता लिखता
है तो उसे पुनर्रचना कहते हैं। यथार्थ को गड्डमड्ड करके उसे तोड़फोड़ कर कल्पना और
अतिकल्पना के भयावह अन्धकार में झोंक देना पुनर्रचना नहीं है, यथार्थ का अमूर्तन है । यह कुकर्म पुनर्रचना का विलोम
है। पुनर्रचना जैसी बेहतरीन काव्यशास्त्रीय थ्योरी का इस कदर अपमान और गलत
परिभाषा देने का दुस्साहस किसी भी आलोचक ने आज तक नहीं किया है । यह विजेन्द्र ही
कर सकते थे और उन्होंने एकान्त के सन्दर्भ
में किया भी है । विजेन्द्र जिस कविता का उदाहरण दे रहे हैं, वह कविता एकान्त की सबसे घटिया कविता है जिसमें
काव्य सरोकारों और काव्य-चिन्तन की लोकधर्मी परम्परा का खंडन किया गया है। विजेन्द्र
का चिन्तन इतना कमजोर हो सकता हैं, मैने सपने में भी नहीं सोचा था। विजेन्द्र एकान्त की कविता “कविता की जरूरत” का
उदाहरण दे रहे हैं। इस कविता के एक चुने
हुए अंश को लगाते हैं और उसके जनविरोधी खंड को गायब करके मनमाना आस्थावादी कुतर्क
देते हैं। कविता का गायब हिस्सा भी उन्हें
देखना चाहिए - “जिस समय बीज / खेतों में बोए जा चुके होंगें / जिस समय एक नाव /
नदी की सबसे तेज धार को / काट रही होगी / उसी समय पैदा होगी / कविता की जरूरत। “ -
इस कविता पर मैने पहले भी लिखा है कि कविता की जरूरत तभी पैदा हो रही है जब सारे
काम निबट चुके होते हैं । खेत बोए जा चुके होते हैं । नाव धार को काट चुकी होती है।
जब आदमी श्रम और खेद से लड़कर विश्राम की
मुद्रा में आ जाता है, तब कविता की जरूरत पैदा होती है। यह कविता श्रम की शक्ति का विरोध है। कविता के
रचनात्मक सरोकारों का फूहड़ मजाक है। यदि
ऐसा भद्दा और घटिया मजाक विजेन्द्र को पुनर्रचना प्रतीत होता है तो विजेन्द्र की
आलोचकीय मेंघा को मेरा सलाम है। कविता को फुरसत का शगल मानने वाली बुर्जुवा
ताकतें आज भी कविता को राजनीति और समाज से परे मानती हैं । उनके लिए कविता का काम
केवल मनोरंजन है। कविता को राजनीति से दूर
होना चाहिए। उसे समाज-सुधार और क्रान्ति
जैसी बातों के फेर में नहीं पडना चाहिए। यही मान्यता एकान्त की रही है, क्योंकि कविता तो यही कह रही है और यही मान्यता
विजेन्द्र की भी है, नहीं तो वे
इसे पुनर्रचना कहकर चेर्नोवस्की की धज्जीयां न उड़ाते ! इस कविता के बाद विजेन्द्र
रचनात्मक विस्तार और रचनात्मकता की बात करते हैं तो वहां भी यथार्थ और संघर्षों का
विरोध कर देते हैं । प्रख्यात विचारक काडवेल ने श्रम को रचनात्मकता कहा था। वही
कविता का विस्तार भी है । मार्क्स ने भी बुर्जुवा और सर्वहारा के संघर्षों को
रेखांकित करने वाली रचना को साहित्य की संज्ञा दी थी । लेकिन विजेन्द्र जब एकान्त
की रचनात्मकता की बात करते हैं तो पुरस्कार और विशेषांक की खुशी में इतना डूब जाते
हैं कि संघर्ष की बजाय आराम-तलबी खूबसूरत दुनियां की मांग को कविता के लिए जरूरी
बताकर गैर-वाम अवधारणाओं को लोकधर्मिता का चोला पहना देते हैं। एकान्त
की रचनात्मकता का पूरा विस्तार समझाते हुए वे एक कविता का उदाहरण देते हैं “मुझे / बसन्त खुशबू से भरी / पूरी पृथ्वी दो /
कविता लिखने के लिए” । (कृतिओर 80)
बसन्त की मादक ऋतु से भरी पृथ्वी चाहिए कवि को, जिससे धरती पर वे खेद,
ताप और दुख संघर्ष न देख सके चारों तरफ उन्माद और विलास दिखे। जब हर तरफ सुख ही
सुख हो,
बसन्त ही बसन्त हो तो कविता की जरूरत ही क्या है ? धूमिल को विजेन्द्र एकान्त के
मुकाबले बेहद कमजोर समझते हैं, जबकि धूमिल विजेन्द्र से मीलों आगे हैं। वह साठोत्तरी कविता का एकमात्र कवि था जिसने
कविता को गाँव की ओर मोडा वह वैचारिक रूप से स्पष्ट और कविता में सधा हुआ आधुनिक
कवि था। धूमिल ने कविता को बौखलाए हुए आदमी का एकालाप कहा था। यहां एकान्त बसन्त
की अय्यासी कह रहे हैं और इस अय्यासी को उनके आलोचक विजेन्द्र कविता का विस्तार कह
रहे हैं। धन्य है विजेन्द्र जिन्होंने इस कविता के मामले में लोकधर्मी कविता के
सरोकारों की भी तिलांजलि दे दी । विजेन्द्र का लोक ऐसी फोल्डिंग कुर्सी की तरह है
जिसे जब चाहे तब मोड़कर चाहे, जैसे बैठ जाईए। उसमें बैठने की एकमात्र शर्त बैठने वाले की सुविधा और उसका स्वार्थ है । ‘कविता की जरूरत’ नामक कविता
पर विजेन्द्र बेतरह सम्मोहित हैं। यह कविता उन्हें एकान्त को निराला बनाने पर
बाध्य कर देती है । विजेन्द्र इसी आलेख में आगे कहते हैं कि “उनके मन में प्रतिरोध की आंच दहक रही है वे
संघर्ष की मुद्रा में है, एकान्त के
लिए यही कविता का प्रेरणास्रोत है। ” इस बयान को पढकर मेंरी हँसी रुक नहीं रही है।
कितने निरीह और कातर हो चुके हैं विजेन्द्र ! एकान्त ने जबरदस्त प्रवक्ता तैयार किया है अपने
लिए, एक
ऐसा आलोचक जो कभी भी अपने सिद्धांतों की तकिया बनाकर उल्टा-पुल्टा सो सकता है । विजेन्द्र
भावावेश में उलटबाँसी कह जाते हैं। शायद ध्यान से अपने कथन को उन्होंने पढा नहीं होगा । विजेन्द्र
आँच को दहका रहे हैं जबकि आँच नहीं दहकती है | जब आग दहकती है तभी आँच पैदा होती
है आँच का दहकना उलटबाँसी है । जब जल्दबाजी में वगैर पढे और कवि का इतिहास
जाने वगैर मीडियाकर कवियों को लोकधर्मी कहने की जल्दबाजी दिखाई जाती है तो मुख की
सरस्वती ऐसे ही ऊलजुलूल वक्तव्य देती है और आँच दहकती भी है तो मन के अन्दर दहकती
है। बहुत बढिया हुआ, यह आँच मन के भीतर ही है, वहीं बनी रहे तो ठीक है । बाकी कवियों का नुकसान होने
से तो बच जाएगा। अब वह कविता देखिए जिसके कारण विजेन्द्र आँच दहका रहे हैं। यह किसी कविता का अंश है जिसका एक छोटा सा
हिस्सा विजेन्द्र पेश कर रहे हैं- “भूखे लोगों के पडाव में / खौलता हुआ अदहन /
जिस समय मांगेगा अन्न / उसी समय / पैदा होगी कविता” । (कृतिओर 80) कवि कविता पैदा कर रहा है। इस कविता में क्रान्ति छिपा रहस्य है। फिर भी हम खौलने को क्रान्ति मान लेते हैं। कविता कभी क्रान्ति नहीं करती है। बस वे क्रान्ति में सहयोग करती है। उसकी जरूरत
अदहन खौलाने तक है। खौलते अदहन के बाद तो
किसी भी चेतना की जरूरत नहीं होती है । काव्य का मुख्य सरोकार और पक्षधर लेखक की
सार्थकता केवल इतनी है कि वह जनता में चेतना जाग्रत करे। चेतना जब आती है तो परिवर्तन अपने आप आते हैं।
पर यहां अदहन खौलने के बाद कविता पैदा की जा रही है। इसका मतलब विजेन्द्र मानते
हैं कि सब के सब चेतन हैं। अब चेतना की जरूरत नहीं है तो कविता को पैदा करने की
क्या जरुरत है? विजेन्द्र जी, कविता चेतना ही तो देती है! अब काम तो जन का है
कि वह हथियार उठाए और बगावत कर दे। मतलब कविता बगावत नहीं करेगी। बगावत जन को ही करना पडेगा। अब आप दोनों कवि -आलोचक अपने हिस्से का भी काम
कविता से करवाना चाह रहे हैं? नहीं तो काहे अदहन खौला रहे हैं? अदहन खौलने के पहले
आग की जरुरत होती है। अदहन की जरूरत इसलिए
होती है कि आदमी भूखा होता है। भूख ही आग
देती है। दूसरी बात, यहां जानबूझ कर अदहन और भूख का उल्लेख है। कवि की गम्भीर महसूसने की प्रक्रिया गायब है। यह
शब्दों का संजाल है, जिसमें तार्किक
संवेदना गायब है और जाल बिछा है- एक ऐसा जाल, कि जिसमें
विजेन्द्र जैसे शिकार आसानी से खुद को फँसा दें और विजेन्द्र फँस भी गये हैं। किसी
भी कवि का मूल्यांकन उसकी एक दो पंक्ति के आधार पर करने से ऐसे कुतर्क आना
स्वाभाविक ही है। विजेन्द्र को दूसरी
कविताएं भी पढना चाहिए जिसमें कविता के रचनात्मक पक्ष को एकान्त ने ध्वस्त कर रखा
है। यदि उनकी नजर से यह पक्ष गायब रहा है
तो मैं दे रहा हूं। आप इसे पढें और बताएं
कि क्या कविता का विषय चयन इतना जनविरोधी और अयथार्थ होता है? यह अंश “कविता की
जरूरत नामक कविता” से है। “सबसे पहले / सारस के पंखों सा / दूधिया कोरा कागज दो / फिर एक कलम / जिसकी
स्याही घुला हो / असंख्य काली रातों का अन्धकार” । यह कविता की लिस्ट है। कविता
के लिए कविता कहने में भी कवि जन और संवेदना को गायब कर देता है। उसे संवेदना, संघर्ष और
जनभाषा की कोई जरूरत नहीं है । इनको सारस जैसे रौमैन्टिक पक्षी के पंख जैसा आकर्षक
कागज चाहिए और रात की कालिमा का ऐन्द्रिक बोध स्याही के रूप में चाहिए। ये चीजें धरती में सहजता से नहीं मिलेंगी । इनके
लिए कल्पना जगत का सहारा लेना पडेगा। इस कविता में जनपक्षीय संवेदनाओं और रचनात्मक्
संघर्षों को धता बताकर जानबूझ कर कवि ने कविता को बिहारी की नायिका की तरह सुकोमल
और लचीली व अप्राप्य बना दिया है। लेकिन
विजेन्द्र को इसमें भी प्रतिरोध की आँच दिखेगी । विजेन्द्र
अपने इस आलेख में उस कथावाचक की तरह दिखते हैं जो अपने आराध्य की महिमा गाने के
लिए लंकाकांड में भारत पाकिस्तान के युद्ध का आरोपण कर देते हैं। कवि
कुछ कह रहा है, आलोचक उसे कुछ और सिद्ध कर रहे हैं ।
एकान्त के प्रेम में तर्क को कुतर्कों में परिणत कर
चुके विजेन्द्र धूमिल पर आक्षेप लगाने
लगते हैं। ‘कृतिओर’ के इसी अंक में इसी लेख में वे एक जगह कहते हैं “एकान्त
नें स्त्री पुरुषों के अनेकानेक चरित्र रचे हैं। रचे हैं, इसलिए कह रहा हूं कि कवि ने किसी चरित्र पर
अपने को थोपा नहीं है जैसे धूमिल अपने को मोचीराम पर थोपने लगते हैं। एकान्त अपने चरित्रों को बड़ी सजगता से उगने देते
हैं। उनके प्रमुख चरित्र हैं। सिला बीनती लडकियां” विजेन्द्र यहां बडी भूल कर
रहे हैं । इस कथन का एकान्त की कविता से कोई सम्बन्ध नहीं है । एक तो कविता में
उपस्थित किसी विषय को चरित्र कहने की भूल कर रहे हैं। इस तरह से चरित्र खोजे जांय तो अशोक
बाजपेयी और अशोक पांडेय जैसे कवि भी
चरित्रों से भरे-पूरे दिखाई देगें। दूसरी गलत बयानी यह कर रहे हैं कि ‘सिला बीनती लडकियां’ पर उन्होंने
अपने को थोपा नहीं है। यह तो सरासर झूठ है ! विजेन्द्र ने कविता जरूर पढ़ी
होगी। लेकिन आँख मूँदकर पढी होगी। मै यह दावे के साथ कह सकता हूँ। कवि का रचनात्मक
व्यक्तित्व उसकी शैली और कहन से प्रकट होता है । अपनी शैली और अपने अन्दाज में हर
कवि विषय को प्रस्तुत करता है । शैली मतलब यथार्थ को प्रस्तुत करने का ढंग है ।
सीला बीनती लडकियां गरीब मजदूर परिवारों की होती हैं, जो खेत काटे जाने के बाद बडी मेंहनत से धूप और लू
सहते हुए खेतों से एक एक दाना बीनती हैं। कोई
शौकिया या मौज में सिला नहीं बीनता। मजबूरी और भूख उसे सिला बीनने को बाध्य करती हैं।
पर संघर्ष की इस कठिन परिस्थिति को भी एकान्त
नहीं बखस्ते। वे अपनी शैली से मेहनत, पसीना और धूप के कष्ट को गायब कर रौमैन्टिक
पिकनिक का अड्डा बना देते हैं । यथार्थ से संघर्षों का विलोपन करना यथार्थ का
कचूमर निकाल देता है । एकान्त का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि उन्हें यथार्थ को
अयथार्थ कर देने में ही मजा आता है। जब तक उडन-छू हवा-हवाई कल्पनाएं नहीं आएंगी,
उनकी रचनात्मकता का द्वार ही नहीं खुलता है। यथार्थ
का विरोध एकान्त क्यों न करे ! यह एकान्त की गलती नहीं है, यह
आलोचक की गलती है एकान्त जानते हैं- मेंरे पास बडी पत्रिका है। हजारों कवि और आलोचक मुझ पर प्रशस्ति पर लिख
डालेगे और लिखे भी हैं। झूठ तर्क और कुपाठ
के सहारे सच का गला घोंट रहे ये आलोचक हिन्दी के बुर्जुवा लेखक हैं। जनवाद का आवरण लपेटकर अपने स्वार्थ में सफेद को
काला और काले को सफेद घोषित कर देते हैं। देखिए जिस कविता की विजेन्द्र प्रशंसा कर रहे हैं, वह कितनी यथार्थ-विरोधी, गरीब-विरोधी जनविरोधी और और एकान्त की निजी शैली में फँसकर सच को सजा ए
मौत दे रही है | “धान कटाई के बाद / खाली खेतों में / वे रंगीन चिड़ियों की तरह
उतरती हैं / सिला बीनने झुंड के झुंड और एक खेत से दूसरे खेत में / उड़ती फिरती हैं”
। लडकियां मेंहनतकश व्यक्ति नहीं हैं, इंसान नहीं
हैं। वे तो रंगविरंगी चिडियां हैं। वह
धरती की नहीं है। वे आकाश से उतरती हैं। वे
धूप और ताप को नहीं सहती हैं, बल्कि उड़ती
फिरती हैं। हद हो गयी चापलूसी की इतनी घटिया कविता को चरित्र का नाम देना और
एकान्त को व्यक्तित्व न थोपने वाला कहना मुझे सांसत में डाल रहा है। मुझे आशंका ही
नहीं, पूरा
विश्वास है कि विजेन्द्र लोकधर्मी कतई नहीं हैं | उनको लोक और लोकजन्य चरित्रों की
कोई पहचान नहींहै | यही कारण है वे अपने इर्द गिर्द अवैचारिक गैर-वाम लोगों की भीड़
लगाए रहते हैं और उनसे झूठी वाहवाही सुनकर अपने भी होने का सबूत खुद को देते रहते
हैं । विजेन्द्र का यह आलोचकीय कर्म उनके रचनाकर्म को भी सन्देहास्पद कर देता है।
इससे भी बुरी बात है कि इस घटिया कविता की तुलना वे धूमिल की मोचीराम से करते हैं
जबकि मोचीराम के टक्कर की एक भी कविता विजेन्द्र के पास नहीं है । धूमिल
के तंज और धूमिल की वैचारिकता विजेन्द्र की तरह गड़बड़ नहीं है। वह साठोत्तरी कविता
का एकमात्र ऐसा कवि था, जिसने कविता को गाँव की ओर मोड़ा और अपनी भेदस भाषा
से यथार्थ की खतरनाक वृत्तियों का लोहा
लिया। धूमिल की पंक्तियां मुहावरा बनकर
भाषा का अंग बन चुकी हैं। धूमिल एक हद तक शहर से नफरत करते थे। वे शहर भी जाते थे
तो ऊँची हवेली और सेठों के दर्शन नहीं करते थे। मोचीराम और हल्लागाड़ी देखते थे । ऐसे कवि की
तुलना एकान्त से करके विजेन्द्र ने खुद पर सवालिया निशान लगा लिया है । धूमिल से जुड़ा
यह बयान पढकर विजेन्द्र की आलोचकीय नैतिकता पर सवाल उठना लाजिमी है |
विजेन्द्र कविता पर भले ही सत्तर-अस्सी के दशक से बाहर न निकल पाए
हों, लेकिन अपने आलोचकीय अभिमतों और निर्णयों में वे कभी भी थिर नहीं रहे । उनकी
आलोचना-पद्धति किसी सिद्धांत की मुहताज नहीं है। सिद्धांतों को विजेन्द्र की
आलोचना में खोजना बेवजह की मेंहनत होगी। उनके सिद्धांत उनकी सुविधानुसार बदलते
रहते हैं। सूत्र सम्मान दाता विजय सिंह, जो जनवाद और मार्क्सवाद को
बिल्कुल नहीं जानते और वाकायदा इन विचारधाराओं की आलोचना करते हैं, उनको भी विजेन्द्र लोकधर्मी
कहते हैं। मैं फेसबुक में देखता हूं- घोर वामविरोधी
लोग इनके विचारों पर सहमत रहते हैं। इनके इर्द गिर्द मँडराते रहते हैं। पत्रिका ‘कृतिओर’ का भी यही हाल है लाख समझाने
के बावजूद भी इसमें लगातार दक्षिणपंथी और कमजोर लेखक छप रहे हैं । कोई अनु्वाद के
बहाने, कोई कविता के बहाने, कोई लेख के बहाने किसी न किसी अंक में छपे मिल जाते हैं। मैने कई बार विरोध
दर्ज किया कि यह पत्रिका आन्दोलन की रीढ है। इस तरह करना ठीक नहीं है तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
अगला अंक वही का वही रहता है। फिर भी ‘कृतिओर’ से मुझे लगाव है। उस पत्रिका
के अवदानों को भुलाया नहीं जा सकता है । खैर, विजेन्द्र की विचारधारा पर बात हो
रही थी। जब भी वे बहस करते हैं तो लेनिन और मार्क्स के लम्बे उद्धरण देते हैं। लेकिन जब पक्षधरता और चयन की बात आती है तो ये
उद्धरण उनको भूल जाते हैं। वे न तो
विचारधारा के साथ न्याय कर पाते हैं, न अपने आलोचकीय कर्म को पक्षधर कर
पाते हैं। अपने बयानों और सिद्धांतों को ही उलट-पुलट देते हैं। यह अपनी समझ और
वृत्ति से करते हैं। ऐसे अनर्विरोध विजेन्द्र के लेख में भरे पड़े हैं। मैं इनकी बदलती बयानबाजी और विचारधारा का सबसे बडा
अवसरवाद एकान्त और वागर्थ के सन्दर्भ में देखता हूं। अब देखिए, जब लांग नाईंटीज पर बहस हो रही थी, तब 2013 में प्रभातवार्ता के 31 मार्च वाले रविवासरीय पर
विजेन्द्र के विचार देखिए “वागर्थ सेठाश्रित बुर्जुवा मिजाज की पत्रिका है। है।
सेठाश्रित पत्रिकाएं सदा से ही कविता को अग्रगामी विचाररहित व चिन्तन-विमुख बनाने
में सक्रिय रही” । अब विजेन्द्र पर वागर्थ ने अंक निकाल दिया है तो जाहिर है वे भी सेठों के
प्रिय हो गये। यदि वागर्थ सेठों की है तो उसके प्रति आपका सम्मोहन और उसके निरीह
सम्पादक का महिमागान आपको शोभा नहीं देता है । जी हां, इसी आलेख में वे एकान्त पर भी
ऊंगली उठाते हैं। उसको निरीह बेचारा तक कह
देते हैं। देखिए , आगे क्या लिखते हैं “सेठाश्रित बुर्जुवा पत्रिकाओं का सम्पादक
मालिक की राय से चलने को बेचारा विवश है। कहने को हम स्वायत्तता की चाहे जितनी बड़ी-बड़ी
बातें करें। पर मालिक को खुश तो रखना ही है इससे लेखन की धार कुन्द और यथास्थिति
की पोषक होने लगती है”। यह लेख 2013 का है। आज 2016 है। साढे तीन साल में न तो पत्रिका बदली, न उसका कलेवर बदला, न मालिक बदला, न संपादक बदला, न संपादक की कविता और
विचारधारा बदली है। बदले हैं तो केवल विजेन्द्र बदले हैं । जिस एकान्त को “लेखन की
धार कुन्द और यथास्थिति का पोषक” कह रहे हैं, वह साढ़े तीन साल बाद अचानक “यथास्थिति का भंजक” बन
गया है जो एकान्त निरीह और बेचारा था वह आज अचानक प्रतिरोध की आँच से तप रहा है। मुझे समझ नहीं आता कि ये क्या
है ? एक गैर-वाम लोकविरोधी छद्म कवि की प्रशस्ति में विजेन्द्र अपना ही कहा सिर के
बल खडा कर रहे हैं। अचानक ऐसा क्यों ? कारण चाहे जो हो, विजेन्द्र और उनके सभी परिचित
इससे बखूबी परिचित हैं। विजेन्द्र भी समझते हैं। मुझे इस प्रसंग में एक शेर याद आ रहा है कि “हम जानते हैं, जन्नत की हकीकत लेकर दिल
बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है” । भले आप अपने बचाव में लाख तर्क दें, लाख मार्क्स और लेनिन के
वक्तव्य उदधृत करें पर जो हकीकत है, वह जगजाहिर है। समय के साथ विचारधारा का विकास करना उसे नये
हथियारों से सुसज्जित करना परिवर्तन है तो निजी आधार पर विचारधारा का सत्यानास कर
देना घोर अवसरवाद है। इस बात को विजेन्द्र के उपरोक्त बयानों और अंतर्विरोधों से
ग्रसित निर्णयों से समझा जा सकता है। इसी आलेख में वे एकान्त की पक्षधरता और ईमानदारी पर भी
सवाल खडा करते हैं। वे कहते हैं “साहित्य में जोड़-तोड़, बदनीयती, समीक्षकों की बेईमानी, साहित्य
के सामन्तों की घटिया कारगुजारी का विरोध भी हुआ है, हो रहा है। जहां विरोध हो रहा है, एकान्त उसमें सहयोग नहीं कर
रहे हैं। उसे भी रेखांकित करना चाहिए था। एकान्त से मेंरा विनम्र प्रश्न है- क्या उन्होंने
कभी साहस के साथ ऐसी विकृतियों को बेनकाब
किया है? वह चाहते तो क्यों नहीं कर सकते थे ? जिसे वे सच मानते हैं तो उसे कहने से
क्यों कतरा रहे हैं ?” इस आलेख में जिस एकान्त को मालिक का नौकर कह रहे हैं, उससे सवाल भी पूछ रहे, यह जानते हुए भी कि सेठाश्रित
पत्रिकाओं के संपादक साहसी नहीं होते हैं। इसलिए सच को समझने के बावजूद भी वे सच
के प्रति ईमानदार नहीं होते हैं। एकान्त उसी वर्ग से आते हैं, जहां साहित्य और कला को अभिजात्य
वर्ग का मनोरंजन समझा जाता है। कैसे लेखकीय ईमानदारी वे दिखाएंगे ? पर विजेन्द्र जी, मैं आपसे विनम्र सवाल कर रहा
हूं कि तीन साल के भीतर एकान्त कैसे प्रतिरोधी बन गये ? प्रतिरोध लेखकीय ईमानदारी
से आता है । जब एकान्त में साहस नहीं है तो वह प्रतिरोधी कैसे हुए ? या तो आप
प्रतिरोध को केवल स्तुति में कहने वाला मन्त्र मानते हैं या फिर एकान्त की कविताई
को उसकी चेतना को वामपंथी मानते हैं। अगर
ये दोनो बाते सहीं हैं तो आपके पुराने अभिमत का क्या हुआ? जिस वागर्थ ने लांग नाईंटीज के बहाने हिन्दी कविता के
इतिहास का गलत प्रमाणन किया, आप उसे स्वीकृति दे रहे हैं। तब लांग नाइंटीज का विरोध क्यों ? वह वागर्थ का खेला था, जिसमें लोकधर्मी वामपंथी
काव्यधारा को हाशिए पर ढकेलने के लिए पूँजीवादी बुर्जुवा आलोचकों ने लांग नाईंटीज का शिगूफा छोड़ा। इसमें अधिकांश जेनूइन कवि बहिष्कृत थे और फर्जी कवि
उपकृत थे। यदि आप आज
विचलन कर रहे हैं, अपने कहे से मुकर रहे हैं तो यह आपके द्वारा लोकधर्मी चेतना के प्रति बहुत
बडा अपराध होगा। इतिहास आपके इस विचलन को
भूलेगा नहीं , आपको उत्तर देना होगा । तीन साल में ही इतनी बडी साजिश के सूत्राधारों पर
आपका विश्वास कैसे बढ़ा ? तीन साल पहले के बयान और आज के बयानों में इतना घोर अन्तर्विरोध क्यूं है? आपकी विचारधारा पर अन्तर्विरोध
स्वाभाविक है, क्योंकि आप कविता को विचारधारा के नजरिए से देखना पंसद नहीं करते हैं। आपके
कहन के अनुसार बगैर विचारधारा के कविता कमजोर होती है जो आपने कृतिओर के अस्सीवां
अंक में लिखा है। यदि कविता के लिए विचारधारा जरूरी है तो कविता को परखने के लिए
विचारधारा जरूरी क्यों नहीं है ? यह भी आपके लोकधर्म का अपनी सुविधानुसार संकुचन
और फैलाव है । अन्तर्विरोध विजेन्द्र में शायद नहीं होते। लेकिन अवसरवाद ने विजेन्द्र को आलोचकीय
अन्तर्विरोधों से लबरेज कर दिया है । इस प्रतिष्ठा को मेरी जैसी उमर के लोग समझते
हैं। आज का पाठक सारी सूचनाएं रखता है। वह बेखबर और गैर-जिम्मेदार नहींहै । ऐसे
वेवजह के परिवर्तनों ने हिन्दी कविता का बहुत नुकसान किया है। एकान्त और विजेन्द्र की जुगलबन्दी अभी आगे कितने
गुल खिलाती है, यह आने वाले समय में देखना दिलचस्प होगा ।• उमाशंकर
सिंह परमार, ९८३८६१०७७६
बबेरू, बाँदा, उत्तर प्रदेश ।
उपयोगी लिंक :
1 जनवादी मुखौटे में उदय प्रकाश का हिपोक्रिटिक सामंती चेहरा
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1 जनवादी मुखौटे में उदय प्रकाश का हिपोक्रिटिक सामंती चेहरा
- सुशील कुमार
3.लोक के मुखौटे में कविता का फर्जीवाड़ा - उमाशंकर सिंह परमार
सुंदर रचना
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